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________________ "कहिणं भते! समुच्छिममणुस्सा समुच्छंति? गोयमा! अंतोमणुस्सखेत्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवेसु गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसुवा, पासवणेसुवा, खेलेसु वा, सिंघाणेसुवा, वंतेसुवा, पित्तेसुवा, सुक्केसुवा, सोणिएसुवा, सोक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा, विगयजीवकलेवरेसु वा, थीपुरिससंजोएसु वा, गामनिद्धमणेसु वा,नगरनिद्धमणेसु वा, सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा समुच्छंति, अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्ताए ओगाहणाए, असण्णी, मिच्छादिट्ठी अण्णाणी, सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा, अंतमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति।" इस पाठ का यह भाव है-मनुष्य क्षेत्र 45 लाख योजन लंबा-चौड़ा है, उसके अन्तर्गत अढाई द्वीपसमुद्रों, 15 कर्म-भूमि, 30 अकर्मभूमि, 56 अन्तरद्वीप, इस प्रकार 101 क्षेत्रों में गर्भज-मनुष्यों के मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक की मैल, वमन, पित्त, रक्त-राध, वीर्य, शोणित, इनमें तथा शुष्क शुक्रपुद्गल आद्रित हुए में, स्त्री-पुरुष के संयोग में, शव में, नगर तथा गांव की गंदी नालियों में और सर्व अशुचि स्थानों में समूलिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। उनकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र की होती है। वे असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, सब प्रकार की पर्याप्ति से अपर्याप्त, अन्तर्मुहूर्त में ही काल कर जाते हैं। अत: चारित्र का सर्वथा अभाव होने से, इनको मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी कारण भगवान् ने कहा-गर्भज मनुष्यों को ही मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, समूलिम मनुष्यों को नहीं। मूलम्-जइ गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, किं कम्मभूमिय-गब्भवकतिय-मणुस्साणं, अकम्मभूमिय-गब्भवक्कतिय- मणुस्साणं, अंतरदीवगगब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं ? गोयमा ! कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, नो अकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय- मणुस्साणं, नो अंतरदीवगगब्भवक्कंतिय- मणुस्साणं। छाया-यदि गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, किं कर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां, अकर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, अन्तरद्वीपज-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणाम्? गौतम ! कर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, नो अकर्मभूमिजगर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, नो अन्तरद्वीपज- गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणाम्। पदार्थ-जइ-यदि, गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को, किं-क्या कम्मभूमियगब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं-कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को, अकम्मभूमियगब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं-अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को, अंतरदीवग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं? अन्तरद्वीपज-गर्भज मनुष्यों को, गोयम!-गौतम ! कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं-कर्मभूमिज गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को, अकम्मभूमियगब्भं-वक्कंतिय - * 224 * -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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