________________
द्रव्यतः-अवधिज्ञानी जघन्य तो अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता व देखता है-चतुःस्पर्शी मनोवर्गणा और आठ स्पर्शी तैजस-वर्गणा के अन्तराल में जितने भी रूपी द्रव्य हैं, उनको और उत्कृष्ट सर्वसूक्ष्म-बादर द्रव्यों को जानता व रूपी देखता है।
क्षेत्रतः-अवधिज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र क्षेत्र को जानता व देखता है और उत्कृष्ट अलोक में कल्पना से यदि लोक प्रमाण असंख्यात खण्ड किए जाएं तो अवधिज्ञानी, उन्हें भी जानने व देखने की शक्ति रखता है। ____कालत:-अवधिज्ञान जघन्य एक आवलिका के असंख्यातवें भागमात्र को देखता है तथा उत्कृष्ट असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी परिमाण अतीत और अनागत काल को जानता व देखता है।
भावतः-अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त भावों-पर्यायों को जानता व देखता है, उत्कृष्ट भी अनन्त पर्यायों को जानता व देखता है, किन्तु इस स्थान पर जघन्यपद से उत्कृष्ट पद अनन्तगुण अधिक जानना चाहिए, क्योंकि अनन्त के भी अनन्त भेद होते हैं। फिर भी वह भेद-भाग अनन्त के स्तर पर ही रहता है। इस विषय में चूर्णिकार भी लिखते हैं-"जहण्णपदाओ उक्कोसपदं अणन्तगुणं" किन्तु जो उत्कृष्ट पद में अनन्त पर्यायों का वर्णन किया है, वह भी सर्व भावों के अनन्तवें भागमात्र जानना चाहिए। अतः सूत्रकार ने अंत में यह पद दिया है-सव्वभावाणमणंतभागं जाणड़ पासइ। इस सूत्र के आधार पर चूर्णिकार भाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- "उक्कोसपदे वि जे भावा, ते सव्वभावाणं अणंतभागे वति।" निष्कर्ष यह निकला कि सर्व पर्यायों के अनन्तवें भागमात्र पर्यायों को अवधिज्ञानी जानता व देखता है।
ज्ञान विशेष ग्रहणात्मक होता है और दर्शन सामान्य अर्थों का परिच्छेदक होता है। चूर्णिकार भी इसी प्रकार लिखते हैं "जाणइ त्ति नाणं, तं च, जं विसेसग्गहणं तं नाणंसागारमित्यर्थः, दंसेइ, इति दंसणं तं च, जं सामण्णग्गहणं तं दंसणं-अणागारमित्यर्थः।" ____ यदि इस स्थान पर यह शंका की जाए कि पहले दर्शन होता है, पीछे ज्ञान, इस क्रम को छोड़कर सूत्रकार ने पहले ज्ञान, पीछे दर्शन का क्यों ग्रहण किया? इसके समाधान में कहा जाता है कि सर्वलब्धियां ज्ञानोपयोग वाले जीव को होती हैं। अतः अवधिज्ञान भी लब्धि है, इस कारण पहले ज्ञान ग्रहण किया है। यह अध्ययन सम्यग्ज्ञान का प्रतिपादन करने वाला है, इसीलिए सूत्रकार ने सूत्र के आरम्भ में मंगल के प्रतिपादक पाँच प्रकार के ज्ञान का ग्रहण किया है। प्रस्तुत प्रकरण में सम्यग्ज्ञान की प्रधानता है। अनाकारोपयोग तो सम्यग् और मिथ्या दोनों का सांझा है। दर्शनोपयोग को तो प्रमाण की कोटि में भी स्थान नहीं मिला। अत: दर्शन अप्रधान है। इसलिए ज्ञान का प्रथम प्रतिपादन करना युक्तिसंगत ही है। प्रस्तुत देश-प्रत्यक्ष अवधिज्ञान की योग, ध्यान और समाधि के द्वारा ही सुगमता
- * 219