________________
अंगुलपृथक्त्व, पांव या पांवपृथक्त्व, अथवा वितस्ति- १२ अंगुल परिमाण क्षेत्र या वितस्तिपृथक्त्व, रत्नि- हाथ परिमाण या रनिपृथक्त्व, कुक्षि- दो हस्तपरिमाण या कुक्षिपृथक्त्व, धनुष - चार हाथ परिमाण या धनुषपृथक्त्व, कोस-क्रोश या कोश पृथक्त्व, ,योजन या योजन-पृथक्त्व, योजनशत या योजनशतपृथक्त्व, योजनसहस्र - एक हजार योजन या योजन सहस्त्रपृथक्त्व, लाख योजन अथवा लाख योजनपृथक्त्व, योजनकोटि या योजनकोटिपृथक्त्व, योजन कोटिकोटि या योजन कोटिकोटिपृथक्त्व, संख्यात योजन या संख्यातपृथक्त्व योजन, असंख्यात योजन या असंख्यातयोजन पृथक्त्व, उत्कृष्ट से सम्पूर्ण लोक को देख कर जो ज्ञान गिर जाता है, उसी को प्रतिपातिव ज्ञान कहा गया है ॥ १४ ॥
टीका - इस सूत्र में प्रतिपाति अवधिज्ञान का स्वरूप दिखाया गया है । प्रतिपाति का अर्थ है - गिरना - पतन होना । पतन तीन प्रकार से होता है - सम्यक्त्व से, चारित्र से और उत्पन्न हुए ज्ञान से। प्रतिपाति अवधिज्ञान अघन्य अंगुल का असंख्यातवां भागमात्र और उत्कृष्ट लोक नाड़ी को विषय कर पतनशील हो जाता है। शेष मध्यम प्रतिपाति अवधिज्ञान के अनेक भेद हैं, जिन का वर्णन भावार्थ में लिखा जा चुका है।
जिस उत्पन्न हुए ज्ञान का अन्तिम परिणाम प्रतिपाति है, वर्तमान में भी उस अवधिज्ञानी को प्रतिपाति ही कहा जाता है । जिस प्रकार एक दीपक जगमगा रहा है, वायु का एक झोंका आता है और वह दीपक तेल और वर्त्तिका के होते हुए भी एकदम बुझ जाता है। बस यही उदाहरण प्रतिपाति अवधिज्ञान के लिए भी है । यह ज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न हो सकता है और लुप्त भी । प्रस्तुत सूत्र में कुक्षि शब्द है - जो दो हस्त प्रमाण का वाचक है। तथा सूत्रकर्ता ने गाउअं शब्द का प्रयोग किया है, इसका संस्कृत में " गव्यूत" बनता है, जिसका अर्थ कोस है। जैनागमों में दो हजार धनुष का कोस माना गया है और चार कोस का योजन। शेष शब्द सुगम हैं ॥ 14 ॥
अप्रतिपाति अवधिज्ञान
मूलम् - से किं तं अपडिवाइओहिनाणं ? अपडिवाइओहिनाणं- जेणं अलोगस्स एगमवि आगासपएसं जाणइ पासइ, तेण परं अपडिवाइ- ओहिनाणं, से त्तं अपडिवाइ- ओहिनाणं ॥ सूत्र १५ ॥
छाया-अथ किं तदप्रतिपात्यवधिज्ञानम् ? अप्रतिपात्यवधिज्ञानं - येनाऽलोकस्यैकमप्याकाशप्रदेशं जानाति पश्यति, तेन परमप्रतिपात्यवधिज्ञानं, तदेतदप्रतिपात्यवधिज्ञानम् ॥ १५ ॥
215