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स्थूल एवं स्थूलतर हैं। ये सब वस्तुतः सूक्ष्म ही हैं। इस पर वृत्तिकार के निम्न प्रकार से शब्द हैं___"सर्वबहु-अग्निजीवा निरन्तरं यावत् क्षेत्रं सूचीभ्रमणेन सर्वदिक्कं भूतवन्तः, एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्ययुक्तः परमावधिक्षेत्रमधिकृत्य निद्रिष्टो गणधरादिभिः, अयमिह सम्प्रदायः-सर्वबह्वग्निजीवा प्रायोऽजितस्वामितीर्थकृत् काले प्राप्यन्ते, तदारम्भकमनुष्यबाहुल्यसंभवात्, सूक्ष्माश्चोत्कृष्टपदवर्तिनस्तत्रैव विवक्ष्यन्ते, ततश्र सर्वबहवोऽनलजीवा भवन्ति ।"
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह क्षेत्र कितने बड़े परिमाण में है ? इसके उत्तर में निम्नलिखित दो गाथाएं है
“निययावगहणागणि-जीवसरीरावली समन्तेणं । भामिज्जइ ओहिनाणी, देह पज्जंतओ सा य ॥१॥ अइगन्तूणमलोगे, लोगागासप्पमाण मेत्ताई।
ठाइ असंखेज्जाइं, इदमोहिक्खेत्तमुक्कोसं ॥ २ ॥" इन गाथाओं का भाव ऊपर दिया जा चुका है। यह सब सामर्थ्यमात्र वर्णन किया गया है। यदि उक्त क्षेत्र में रूपी द्रव्य हों, तो अवधिज्ञानी उन्हें भी देख सकता है। अलोक में रूपी द्रव्यों का सर्वथा अभाव है, और अघधिज्ञानी रूपी द्रव्य को ही विषय करता है, अरूपी को नहीं। कहा भी है. “सामत्थमेत्तमुत्तं दट्ठवं, जइ हवेज्जा पेच्छेज्जा । न उ तं तत्थत्थि जओ, से रूवी निबंधणो भणिओ ॥१॥
वड्ढन्तो पुण बाहिं, लोगत्थं चेव पासइ दव्वं ।
सुहुमयरं २ परमोही जाव परमाणुं ॥ २ ॥" परमावधिज्ञान केवल ज्ञान होने से अन्तर्मुहूर्त पहले उत्पन्न होता है, उसमें परमाणु को भी विषय करने की शक्ति है। इस प्रकार उत्कृष्ट अवधिज्ञान का विषय वर्णन किया गया है। इस विषय को वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है-प्रमाणांगुलैकमाने एकैकप्रदेश श्रेणिरूपे नभःखण्डे यावन्तोऽसंख्येयास्ववसर्पिणीषु समयास्तावत्प्रमाणाः प्रदेशाः वर्तन्ते, ततः सर्वत्रापि कालादसंख्येगुणं क्षेत्रं, क्षेत्रादपि चानन्तगुणितं द्रव्यं, द्रव्यादपि चावधिर्विषयाः पर्यायाः संख्येयगुणा असंख्येयगुणा वा
“खेत्तपएसेहितो, दव्वमणंतगुणियं पएसेहिं ।
दव्वेहिंतो भावो, संखगुणो असंखगुणिओ वा ॥" इस प्रकार काल, क्षेत्र, द्रव्य और भाव को क्रमशः समझाने के लिए एक तालिका यंत्र दिया जा रहा है, जिससे जिज्ञासुओं को समझने में सुगमता रहेगी
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