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________________ अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र मूलम्-२. सव्व-बहु-अगणिजीवा, निरंतरं जत्तियं भरिन्जंसु । खित्तं सव्वदिसागं, परमोही खित्तं निद्दिट्ठो ॥ ५६ ॥ छाया-२. सर्वबह्वग्निजीवाः, निरन्तरं (यावद् ) भृतवन्तः । क्षेत्रं सर्वदिक्कं, परमावधिः क्षेत्रनिद्रिष्टः ॥ ५६ ॥ पदार्थ-सव्व-अधिक, अगणिजीवा-अग्नि के जीवों ने, सव्व-दिसागं-सर्व दिशाओं में, निरंतरं-अनुक्रम से, जत्तियं-जितना, खित्तं-क्षेत्र, भरिजंसु-भरा है, इतना, खित्तं-क्षेत्र, परमोही-परम अवधिज्ञान का, निद्दिट्ठो-निद्रिष्ट किया है। भावार्थ-सब सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अग्नि के सर्वाधिक जीवों ने सब दिशाओं में अन्तररहित आकाश के जितने प्रदेशों को भरा है, उतना परमावधिज्ञान का क्षेत्र तीर्थंकर व गणधरों ने प्रतिपादन किया है। टीका-इस गाथा में सूत्रकार ने अवधिज्ञान का उत्कृष्ट विषय निद्रिष्ट किया है। पाँच स्थावरों में सबसे स्वल्प तेजस्कायिक जीव हैं, क्योंकि अग्नि के जीव समय क्षेत्र में ही पाए जाते हैं। सूक्ष्म सब लोक में और बादर ढाई द्वीप में। तेजस्काय के जीव भी अन्य स्थावरों की भान्ति चार प्रकार के होते हैं, 1. सूक्ष्म-पर्याप्त और अपर्याप्त, 2. बादर-पर्याप्त और अपर्याप्त। इन चारों में असंख्यातासंख्यात जीव प्रत्येक भेद में पाए जाते हैं। उन जीवों की उत्कृष्ट संख्या अजितनाथ भगवान के तीर्थ में हुई थी। इसलिए सूत्रकार ने गाथा में भूतकाल की क्रिया का ग्रहण किया है। कल्पना कीजिए, यदि उन जीवों में से प्रत्येक जीव को आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रखा जाए और इस प्रकार रखते-रखते लोक जैसे असंख्यात खण्ड अलोक से लिए जाएं, इस तरह उन जीवों के द्वारा जितना क्षेत्र भर जाए, उतना क्षेत्र परमअवधिज्ञान का विषय है। ऐसा तीर्थंकर और गणधरों ने प्रतिपादन किया है। अवधिज्ञान का मध्यम क्षेत्र मूलम्-३. अंगुलमावलियाणं, भागमसंखिज्जं दोसु संखिज्जा । ___ अंगुलमावलिअंतो, आवलिया अंगुल-पुहुत्तं ॥ ५७ ॥ छाया-३ अगुलमावलिकयोः, भागमसंख्येयं द्वयोः संख्येयम् । __ अंगुलमावलिकान्तः, आवलिकामंगुल-पृथक्त्वम् ॥५७॥ पदार्थ-अंगुलमावलियाणं-क्षेत्र से अंगुल के, असंखिज्ज-असंख्यातवें, भाग-भाग को देखे तो काल से भी आवलिका का असंख्यातवां भाग देखे, दोसु-दोनों में अर्थात् यदि * 206
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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