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प्राक्कथन
जैनाचार्य पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य थे। उनकी ज्ञानसाधना सर्वविदित है। सन् 1952 में सादड़ी का ऐतिहासिक साधुसम्मेलन हुआ और समस्त चतुर्विध श्रीसंघ ने मिलकर किसी एक महापुरुष को अपना आचार्य निश्चय किया। विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों ने अपनी-अपनी पदवी का मोह त्याग कर एक ही अनुशासन में आना स्वीकार किया । यह एक ऐतिहासिक घटना थी। उस समय यह प्रश्न आया, कि यह महान उत्तरदायित्व किसे सौंपा जाए, कौन ऐसा व्यक्ति है जो साम्प्रदायिक मतभेदों से ऊपर हो, और जिसका जीवन सबको प्रेरणा दे सके। पूज्य श्री आत्मारामजी म सम्मेलन में उपस्थित नहीं थे। उनकी शारीरिक स्थिति भी उस समय ऐसी नहीं थी, किं घूम-घूमकर संगठन का कार्य कर सकें। फिर भी सभी की दृष्टि उन पर गई। उसके दो कारण थे, प्रथम यह कि वे ज्ञान तपस्वी थे। उनकी विद्यासाधना, स्थानकवासी ही नहीं बल्कि समस्त जैन समाज के लिए प्रेरक थी। दूसरी बात यह थी कि उन्होंने साम्प्रदायिक मतभेदों में कभी रुचि नहीं ली। वे इन बातों से सदा पृथक् रहे । उनका अस्तित्व उस दीपक के समान था, जो सबको प्रकाश तो देता है, किन्तु उसकी घोषणा नहीं करता, , बत्ती बन कर कण-कण जलता है और उसका जलना अन्धकार में भटकने वालों के लिए वरदान बन जाता है। जो लोग समाज के नेतृत्व का दावा करते हैं, वे ढोल बजाते हैं, अनुयायियों को आकृष्ट करने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचते हैं, किन्तु वे इन सब से दूर रहे। दूसरे शब्दों में वे सच्चे सन्त थे, नेता नहीं। सन्त स्वयं जलकर प्रकाश देता है, और नेता बुझे हुए दीप को लेकर उसके उत्कृष्ट होने की घोषणाएं किया करता है । स्थानकवासी परंपरा सन्तों की परंपरा रही है । त्यागियों और तपस्वियों ने आडम्बर से दूर रह कर उसे समृद्ध बनाया है। पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज उसी परंपरा के जाज्वल्यमान प्रकाश-स्तंभ थे।
आचार्यश्री ने अपनी दीर्घकालीन ज्ञानसाधना में अनेक पुस्तकों की रचना की है। आगमों का सूक्ष्म पर्यालोचन किया। लगभग बीस आगमों पर विवेचन लिखे । प्रत्येक विवेचन
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