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(4) सम्माण के स्थान पर सम्माणं ।
(5) 'बंदार्मा' के स्थान पर 'वंदामि' ।
इन्द्रं शब्द का पर-निपात प्राकृत के कारण जानना चाहिए।
मूलम् - वर- कणग-तविय चंपग-विमउल - वर - कमल - गब्भसरिवन्ने । भविय-जण-हिय्य-दइए, दयागुण-विसारए धीरे ॥ ४३ ॥ अड्ढभरहप्पहाणं, बहुविहसज्झाय - सुमुणिय - पहाणे । अणुओगिय-वरवसभे, नाइलकुल-वंस- नंदिकरे ॥ ४४ ॥ भूयहियप्पगब्भे, वंदे ऽहं भूयदिन्नमारिए | भव-भय- वुच्छेयकरे, सीसे नागज्जुणरिसीणं ॥ ४५ ॥
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छाया- वर-तप्त-कनक - चम्पक- विमुकुल - वरकमलगर्भ-सदृग्वर्णान् । भविक-जन-हृदय-दयितान्, दयागुण-विशारदान् धीरान् ॥ ४३ ॥ अर्द्ध भरत प्रधानान्, सुविज्ञातबहुविध - स्वाध्यायप्रधानान् । अनुयोजितवर - वृषभान्, नागेन्द्र-कुल- वंशनंदिकरान् ॥ ४४ ॥ भूतहितप्रगल्भान् वन्देऽहं भूतदिन्नाचार्यान् । भव-भय- व्युच्छेदकरान् शिष्यान् नागार्जुनर्षीणाम् ॥ ४५ ॥
पदार्थ - वर- कणग-तविय - तपाए हुए विशुद्ध स्वर्ण के समान, चंपग - स्वर्णिम चम्प पुष्प के तुल्य, विमउल-वर-कमल- गब्भसरिवन्ने - विकसित उत्तम कमल के गर्भ सदृश वर्ण वाले और, भवियं-जण - हियय-दइए - भव्यजनों के हृदयदयित, दयागुणविसारए - क्रूर हृदयी लोगों के मन में दयागुण उत्पन्न करने में अतिनिष्णात, धीरे- और जो विशिष्ट बुद्धि से सुशोभित, अड्ढभरहप्पहाणे- तत्कालीन दक्षिणार्द्ध भरत के युगप्रधान, बहुविहसज्झायसुमुणियपहाणे- स्वाध्याय के विभिन्न प्रकार के श्रेष्ठ विज्ञाता, अणुओगियवरवस- अनेक श्रेष्ठ मुनिवरों को स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त कराने वाले, नाइलकुलवंसनंदिकरे - नागेन्द्र कुल तथा वंश को प्रसन्न करने वाले, भूयहियप्पगब्भे - प्राणिमात्र को हितोपदेश करने में समर्थ, भवभयवुच्छेयकरे- संसारभय को नष्ट करने वाले, सीसे नागाज्जुणरिसीणं- नागार्जुन ऋषि के सुशिष्य, वंदेहं - भूयदिन्नमायरिए - भूतदिन्न आचार्य को मैं वंदन करता हूं।
भावार्थ - जिनके शरीर का वर्ण तपाए हुए उत्तम स्वर्ण के समान या स्वर्णिम वर्ण वाले चम्पक पुष्प के तुल्य अथवा खिले हुए उत्तम जाति वाले कमल के गर्भ-पराग के तुल्य पीत वर्णयुक्त था, जो भव्य प्राणियों के हृदय - वल्लभ, जनता में दयागुण उत्पन्न
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