SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भदं जिणस्स वीरस्स-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, रागद्वेष आदि शत्रुओं पर जिसने पूर्णतया विजय प्राप्त कर ली, उसे जिन कहते हैं। इससे अपाय-अपगम अतिशय का लाभ हुआ, इससे भी कल्याण का होना अनिवार्य है। भदं सुरासुरनमंसियस्स-इस पद से पूजातिशय का वर्णन किया गया है, क्योंकि श्री तीर्थंकर भगवान् ही अष्ट महाप्रातिहार्य लक्षण रूप पूजा के योग्य होते हैं। वे अष्ट महाप्रातिहार्य ये हैं "अशोक-वृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च । .. भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ १ ॥" घातिकर्मों के विलय करने से अपायापगमातिशय, तत्पश्चात् कैवल्य अर्थात् केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है, इससे ज्ञानातिशय का लाभ हुआ, तदनु धर्मोपदेश दिया और सत्य सिद्धान्त स्थापित किया, इससे वागतिशय का लाभ हुआ, तदनन्तर देवेन्द्र, असुरेन्द्र तथा नरेन्द्रों के पूज्य बने हैं, इससे भगवान् पूजातिशायी बने। ___ भदं धूयरयस्स-इस विशेषण के द्वारा कर्मरज से पृथक् होना सिद्ध किया गया है, अर्थात् महावीर का कर्मरज से रहित होने पर ही कल्याण हुआ है। केवल ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति कर्मरज से रहित होने पर ही होती है। क्योंकि कर्मरज . ही जीव को संसार में जन्म-जरा-मरण करवाता है। जब जीव निर्वाण-पद की प्राप्ति कर लेता है, तब वह 'योग' स्पन्दन-क्रिया के अभाव से अबन्धक दशा को प्राप्त होता है। जब तक जीव स्पन्दन-क्रिया युक्त है, तक तक अबन्धक नहीं हो सकता, जैसे कि आगमों में कहा है-“जाव णं एस जीवे एयइ, वेयइ, चलइ, फन्दइ, घट्टइ, खुब्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ, ताव णं अट्ठविहबन्धए वा, सत्तविहबन्धए वा, छव्विहबन्धए वा, एगविहबन्धए वा, नो चेव णं अबन्धए सिया।" अर्थात् जब जीव योग-शक्ति से कंपन करता है, हिलता है, चलता है, स्पन्द करता है, चेष्टा करता है, क्षुब्ध होता है, उदीरणा करता है, तत् तत् पर्याय में परिणत होता है, तब आठ, या सात, या छह, या एक कर्म का अवश्य बन्ध करता है, किन्तु अबन्धक नहीं होता। मिश्र गुणस्थान में आयु कर्म का बन्ध नहीं होता १-२–४–५-६ इन गुणस्थानों में आठ कर्मों का बन्ध हो सकता है। ७वें गुणस्थान में आयु कर्म का बन्ध यदि छठे गुणस्थान में प्रारम्भ कर दिया, तत्पश्चात् बन्ध करते-करते सातवें में जा पहुंचा, तो वहां आयु कर्म का जो बन्ध चालू था, उसे पूर्ण कर सकता है, किन्तु सातवें गुणस्थान में आयु कर्म के बन्ध का प्रारम्भ नही करता। वें और इवें गुणस्थान में आयु कर्म को छोड़कर सात कर्मों का ही बन्ध होता है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में आयु और मोह को छोड़कर छह कर्मों का बन्ध होता है। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है। केवल अयोगी केवली ही अबन्धक * 120 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy