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उत्पन्न हो जाते हैं; उसी प्रकार जिस जीव को एक पद से या हेतु से बहुत से पदों, बहुत से दृष्टान्तों और बहुत से हेतुओं द्वारा अन्त:करण में तत्त्व का श्रद्धान अर्थात् सम्यक्त्व की विशिष्टरूप से प्राप्ति होती है उसे बीजरुचि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जल पर फैलने वाले तैलबिन्दु की भांति एक - पद - जीवादि एक पदार्थ के द्वारा अनेक पदों में सम्यक्त्व को विस्तार प्राप्त हो जाता है, अर्थात् एक पद से अनेक पदों का ज्ञान हो जाता है, तथा जैसे- एक बीज अनेक बीजों को जन्म देता हुआ विस्तार को प्राप्त करता है, उसी प्रकार जिस जीव के अन्त:करण में वपन किया गया सम्यक्त्व का बीज अनेक प्रकार से फैलता है उस साधक को बीजरुचि कहते हैं । अथवा यूं कहिए कि जैसे जल के एक देश में डाला हुआ तैलबिन्दु सर्वत्र फैल जाता है, उसी प्रकार आत्मा के एक देश-प्रदेश में उत्पन्न हुई रुचि क्षयोपशमभाव से आत्मा के सारे प्रदेशों में फैल जाती है, इसी का नाम बीजरुचि है। प्रस्तुत गाथा में सुप् का व्यत्यय किया गया है।
अब अभिगमरुचि का वर्णन करते हैं, यथा
सो होइ अभिगमरुई, सुयनाणं जेण अत्थओ दिट्ठ । एक्कारस अंगाई, पइण्णगं दिट्ठिवाओ य ॥ २३ ॥ स भवत्यभिगमरुचिः, श्रुतज्ञानं येनार्थतो दृष्टम् । एकादशाङ्गानि, प्रकीर्णकानि दृष्टिवादश्च ॥ २३ ॥
पदार्थान्वयः - सो- वह, होइ - होता है, अभिगमरुई - अभिगमरुचि, सुयनाणं - श्रुतज्ञान, जेण - जिसने, अत्थओ - अर्थ से, दिट्ठ देखा है, एक्कारस - ग्यारह, अंगाई- अंग, पइण्णगं- प्रकीर्ण, दिट्ठिवाओ - दृष्टिवाद, य - और उपांगसूत्र ।
मूलार्थ - जिसने एकादश अंग, प्रकीर्ण दृष्टिवाद और उपांगादिसूत्रों में अर्थ द्वारा श्रुतज्ञान को देखा है उसे अभिगम-रुचि कहते हैं।
टीका - सूत्रकार कहते हैं कि अभिगमरुचि वह जीव होता है जो कि आचारांगादि एकादश अंगसूत्रों, उत्तराध्ययनादि प्रकीर्णसूत्रों तथा दृष्टिवाद और उपांगसूत्रों के द्वारा श्रुतज्ञान को भली-भांति समझ कर अपने अन्तःकरण में धारण कर लेता है।
सारांश यह है कि अंगोपांगों में आए हुए श्रुतज्ञान की अवगति से जिसको सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई हो वह अभिगमरुचि कहलाता है।
'प्रकीर्ण' शब्द यहां पर जाति में एक वचन है और अंग के अन्तर्गत होने पर भी दृष्टिवाद का जो स्वतंत्र उल्लेख किया गया है वह उसकी प्रधानता - सूचनार्थ है।
अब विस्तार - रुचि के विषय में कहते हैं
दव्वाणं सव्वभावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवद्धा । सव्वाहिं नयविहीहिं, वित्थाररुइ त्ति नायव्व ॥ २४ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ८७] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं