SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यः सूत्रमधीयानः, श्रुतेनावगाहते तु सम्यक्त्वम् । अङ्गेन बाह्येन वा, सः सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो, सुत्तं-सूत्र को, अहिज्जन्तो-पढ़ता हुआ, सुएण-श्रुत से, ओगाहई-अवगाहन करता है, सम्मत्तं-सम्यक्त्व को, उ-पादपूर्ति में, अंगेण-अंग से, व-अथवा, बहिरेण-बाह्य से, सो-वह, सुत्तरुइ-सूत्ररुचि, त्ति-इस प्रकार, नायव्वो-जानना चाहिए। मलार्थ-जो जीव अंग-प्रविष्ट अथवा अंग-बाह्य सूत्रों को पढ़कर उनके द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करता है उसे सूत्र-रुचि कहते हैं। टीका-आचारांगादि सूत्रों को अंगप्रविष्ट कहते हैं और इनके अतिरिक्त शेष सब सूत्र अंगबाह्य कहलाते हैं तथा इन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य सूत्रों के सम्यक् अध्ययन से जिस जीव के विशुद्ध अन्त:करण में सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है उसको सूत्ररुचि कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि श्रुत के सम्यक् अध्ययन से अन्तःकरण में एक विशिष्ट प्रकार की अभिरुचि उत्पन्न हो जाती है, उसी का दूसरा नाम सम्यक्त्व है। इस प्रकार के सम्यक्त्व वाले साधक को सूत्ररुचि-सम्यक्त्वी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इस गाथा से यह भी सिद्ध हो जाता है कि अंग और अंगबाह्य सभी आगमग्रन्थों के स्वाध्याय का साधु और गृहस्थ सभी को समान अधिकार है। कारण यह है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति का मुख्य कारण श्रुतज्ञान है और उसकी यथार्थ उपलब्धि आगमों के ज्ञान से होती है, अतः जो विद्वान् गृहस्थों के लिए आगमों के स्वाध्याय करने का निषेध करते हैं वे कृपा करके इस गाथा के अर्थ पर शांत मन से अवश्य विचार करें। अब सूत्रकार बीजरुचि का लक्षण बताते हैं - एगेण अणेगाइं, पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं । उदए व्व तेल्लबिंदू, सो बीयरुइ त्ति नायव्वो ॥ २२ ॥ एकेनानेकानि, पदानि यः प्रसरति तु सम्यक्त्वम् । उदक इव तैलबिन्दुः, स बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ २२ ॥ पदार्थान्वयः-एगेण-एक से, अणेगाई-अनेक, पयाई-पदों में, जो-जो, पसरई-फैलता है, उ-वितर्क अर्थ में है, सम्मत्तं-सम्यक्त्व, उदएव्व-उदक में जैसे, तेल्लबिंदू-तेल का बिन्दु, सो-वह, बीयरुइ-बीजरुचि, त्ति-इस प्रकार, नायव्वो-जानना चाहिए। ___मूलार्थ-जैसे जल में डाला हुआ तेल का बिन्दु फैल जाता है, उसी प्रकार एक पद से अनेक पदों में जो सम्यक्त्व फैलता है उसे बीजरुचि सम्यक्त्व जानना चाहिए। टीका-अब बीजरुचि का लक्षण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार जल में डाला हुआ तेल का एक बिन्दु सारे जल पर फैल जाता है, तथा वपन किए गए एक बीज से सैकड़ों वा हजारों बीज उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [८६] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy