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आवश्यकता रहती है। यहां पर 'भूतार्थ' शब्द का अर्थ यथार्थ-ज्ञान अभिमत है। अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
जो जिणदिढे भावे, चउव्विहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नहत्ति य, स निसग्गरुइ त्ति नायव्वो ॥ १८ ॥
यो जिनदृष्टान् भावान्, चतुर्विधान् श्रद्दधाति स्वयमेव ।
एवमेव नान्यथेति च, स निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो, जिणदिढे-जिनदृष्ट, भावे-भावों को, सयमेव-स्वयमेव, चउविहे-चार प्रकार से, सद्दहाइ-श्रद्धान करता है, एमेव-यह इसी प्रकार है, नन्नह-अन्यथा नहीं, य-समुच्चयार्थक है, निसग्गरुइ-निसर्ग-रुचि, त्ति-ऐसे, नायव्वो-जानना।
मूलार्थ-जो जीव, जिनेन्द्र द्वारा अनुभूत भावों, अर्थात् पदार्थों को चार प्रकार से (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से) स्वयमेव ही जातिस्मरणादि-ज्ञान के द्वारा जानकर, ‘पदार्थ का ऐसा ही स्वरूप है इससे भिन्न नहीं है, ऐसा दृढ़ श्रद्धान करता है, उसे निसर्ग-रुचि अर्थात् निसर्ग-रुचि-सम्यक्त्व वाला जीव कहते हैं। .
टीका-इस गाथा में भी निसर्गरुचि के ही स्वरूप का वर्णन किया गया है। जैसे कि-जिन पदार्थों को तीर्थंकर देव ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को अपने निर्मल ज्ञान के द्वारा देखा है, जिसने गुरू आदि के उपदेश के बिना स्वयमेव जातिस्मरणादि ज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानकर उनमें दृढ़ श्रद्धान किया है, वह निसर्ग-रुचि है। तात्पर्य यह है कि जिनेन्द्रदेव ने जो कुछ कथन किया है, वह सत्य ही है मिथ्या कभी नहीं हो सकता, इस प्रकार का जिसका दृढ़ विश्वास है, वह पुरुष निसर्गरुचि सम्यक्त्व वाला है। आप्त वाक्यों पर पूर्ण विश्वास करना और उसके अनुसार हेयोपादेय आदि में निवृत्ति, प्रवृत्ति करना निसर्गरुचि है।
इसकी उत्पत्ति विशिष्टतर-मोहनीय कर्म के क्षयोपशमभाव से होती है, अर्थात् क्षयोपशमभाव के द्वारा ही इसकी अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार निसर्गरुचि के अनन्तर अब उपदेशरुचि के विषय में कहते हैं -
एए चेव उ भावे, उवइठे जो परेण सद्दहई । छउमत्थेण जिणेण व, उवएसरुइ त्ति नायव्वो ॥ १९ ॥ एतान् चैव तु भावान्, उपदिष्टान् यः परेण श्रद्दधाति ।
छद्मस्थेन जिनेन वा, (सः) उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो, परेण-पर के, व-अथवा, छउमत्थेण-छद्मस्थ के द्वारा, जिोण-जिन के द्वारा, उवइठे-उपदिष्ट किए गए, एए-इन पूर्वोक्त, भावे-भावों पर, सद्दहई-श्रद्धा करता है,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [८४] मोक्खमग्गंगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं