________________
इन्हीं दो के संमिश्रण से बन्धादि अन्य पदार्थ बन जाते हैं, अतः ये सब ज्ञेय हैं। इसीलिए प्रस्तुत गाथा में ज्ञान के अनन्तर इनका वर्णन किया गया है। __उक्त तत्त्वों का वर्णन-क्रम भी अभिप्राय से युक्त है। यथा-अर्थात् सचेतन पदार्थ के पीछे, अजीव और जड़ पदार्थों का वर्णन, और जीव के मिलने से बन्ध एवं पुण्य-पाप से आश्रव, और संवर से मोक्ष का होना इत्यादि। यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि जघन्यता से तो जीव और अजीव ये दो ही पदार्थ हैं, मध्यमसरण से नौ और उत्कृष्टरूप से पदार्थ अनन्त हैं।
अब उक्त पदार्थों के जानने का फल बताने के निमित्त प्रथम सम्यक्त्व के स्वरूप का वर्णन करते हैं -
तहियाणं तु भावाणं, सब्भाव उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ १५ ॥
तथ्यानां तु भावानां, सद्भाव उपदेशनम् ।
भावेन श्रद्दधतः, सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः-तहियाणं-तथ्य, भावाणं-भावों के, सब्भावे-सद्भाव, तु-जो भी, उवएसणं-उपदेश है, भावेणं-अन्त:करण से, सद्दहंतस्स-श्रद्धा करने वाले का, सम्मत्तं-सम्यक्त्व, तं-वह, वियाहियं-कथन किया गया है।
मूलार्थ-जीवाजीवादि पदार्थों के सद्भाव में स्वभाव से या किसी के उपदेश से भावपूर्वक जो श्रद्धा की जाती है उसे सम्यक्त्व कहते हैं। . .
टीका-प्रस्तुत गाथा में सम्यक्त्व के स्वरूप का वर्णन किया गया है। जीवाजीवादि पदार्थों के विषय में गुरुजनों का जो सदुपदेश है, उसको अन्त:करण से मानते हुए अर्थात् उस पर अपनी विशिष्ट श्रद्धा रखते हुए मोहनीयकर्म के क्षय वा क्षयोपशमभाव से अन्त:करण में जो अभिरुचि पैदा होती है, उसी को तीर्थंकरों ने सम्यक्त्व कहा है। यदि संक्षेप से कहें तो तत्त्वार्थविषयक-श्रद्धान को सम्यगदर्शन या सम्यक्त्व कहते हैं, और वह आत्म-विकास की प्रथम भूमिका है, अर्थात् चौदह गुण-स्थानों में से अविरति अर्थात् सम्यग्दृष्टि नाम का जो चतुर्थ गुणस्थान है, उससे आत्म-विकास का प्रारम्भ होता है और वह सम्यक्त्व-मूलक ही होता है। अब सम्यक्त्व के भेदों का वर्णन करते हैं -
निसग्गवएसरुई, आणारुई सत्त-बीयरुइमेव । अभिगम-वित्थाररुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई ॥ १६ ॥ निसर्गोपदेश रुचिः, आज्ञा-रुचिः सूत्र-बीज-रुचिरेव ।
अभिगम-विस्तार-रुचिः, क्रिया-संक्षेप-धर्म-रुचिः ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः-निसग्ग-निसर्ग-रुचि, उवएसरुई-उपदेश-रुचि, आणारुई-आज्ञा-रुचि, सुत्त-सूत्र
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [८२] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं