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टीका- गुण और पर्याय को जो धारण करे वह द्रव्य है - ' गुणपर्यायवद् द्रव्यम्'।' यहाँ सहभावी धर्मों को गुण और क्रमभावी धर्मों को पर्याय कहा गया है। जैसे आत्मा एक द्रव्य है, उसके ज्ञानादि गुण हैं और कर्म के वश से उसकी मनुष्य - तिर्यंचादि जो भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हैं वे उसके पर्याय कहे जाते हैं।
यहाँ पर इतना स्मरण रहे कि द्रव्य और पर्याय एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं तथा ये परस्पर में भेद अथवा अभेद दोनों को लिए हुए हैं, अर्थात् कथंचित् भिन्न भी हैं और कथंचित् अभिन्न भी हैं तथा जिस प्रकार द्रव्य के पर्याय होते हैं इसी प्रकार गुणों के भी पर्याय हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे गुण द्रव्य के आश्रित हैं वैसे ही पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित हैं। यहां पर द्रव्य आधार है, गुण और पर्याय आधेय हैं, परन्तु वे द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं हैं।
अब द्रव्य के भेदों का वर्णन करते हैं,
यथा
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कालो
धम्मो अधम्मो आगासं, पुग्गल - ज -जन्तवो 1 एस लोगो ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ ७ ॥
धर्मोऽधर्म आकाशं, काल: पुद्गलजन्तवः ।
एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः ॥ ७ ॥
पदार्थान्वयः - धम्मो - धर्म, अधम्मो - अधर्म, आगासं- आकाश, कालो-काल, पुग्गल - पुद्गल, जन्तवो - जीव, एस - यह षड्द्रव्यात्मक लोगो त्ति - लोक इस प्रकार, पन्नत्तो - प्रतिपादन किया गया है, वरदंसिहिं- श्रेष्ठदर्शी, जिणेहिं - जिनेन्द्रों ने।
मूलार्थ - केवलदर्शी जिनेन्द्रों ने इस लोक को धर्म, अंधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव - इस प्रकार से षड् द्रव्य रूप प्रतिपादित किया है।
टीका - प्रस्तुत गाथा में द्रव्यों के वर्णन के साथ-साथ लोक का भी निर्देश कर दिया गया है। यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, कालद्रव्य, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन षड्द्रव्यों का समुच्चय यह लोक है, अथवा यूं कहें कि यह लोक धर्मादि षड्द्रव्यात्मक है।
तात्पर्य यह है कि जितने क्षेत्र में ये द्रव्य हों उसे लोक कहते हैं, इसके विपरीत अर्थात् जहां पर उक्त द्रव्यों की सत्ता न हो वह अलोक है। अलोक में एक मात्र आकाश द्रव्य ही होता है, अन्य पांच द्रव्यों का वहां पर अभाव होता है तथा काल को छोड़कर अन्य धर्मादि पांच द्रव्य अस्तिकाय के नाम से प्रसिद्ध हैं और 'काल' केवल द्रव्य के नाम से विख्यात है, क्योंकि धर्मादि पांचों द्रव्य, सप्रदेशी अर्थात् प्रदेश वाले हैं और काल - द्रव्य अप्रदेशी है।
यहां पर इतना और भी स्मरण रहे कि 'अस्तिकाय' यह जैन- दर्शन का बहुप्रदेशवाची पारिभाषिक शब्द है। इसका –“अस्ति है, काय - बहुप्रदेश जिनके ऐसे पदार्थ, " यह व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है। इसके अतिरिक्त पुद्गल को छोड़कर शेष द्रव्य अरूपी हैं और पुद्गल द्रव्य रूपी है। इस प्रकार से केवलदर्शी १. तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ सू. ३८
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ७६ ] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं