SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अह खलुंकिज्जं सत्तवीसइमं अज्झयणं अथ खलुङ्कीयं सप्तविंशमध्ययनम् गत छब्बीसवें अध्ययन में सामाचारी का वर्णन किया गया है, परन्तु उसका सम्यक् पालन शठता के त्याग पर निर्भर है और अशठता का यथार्थ ज्ञान तभी हो सकता है, जब कि उसकी प्रतिपक्षभूत शठता का बोध हो जाए। अतः इस सत्ताईसवें अध्ययन में एक दृष्टान्त के द्वारा शठता के स्वरूप का वर्णन करते हैं, यथा - थेरे गणहरे गग्गे, मणी आसि विसारए । आइण्णे गणिभावम्मि, समाहिं पडिसंधए ॥ १ ॥ स्थविरो गणधरो गार्ग्यः, मुनिरासीद् विशारदः । आकीर्णो गणिभावे, समाधि प्रतिसन्धत्ते ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः-थेरे-स्थविर, गणहरे-गणधर, गग्गे-गर्ग-गोत्रीय, मुणी-मुनि, विसारए-विशारद, आसि-हुआ, आइण्णे-गुणों से व्याप्त, गणिभावम्मि-गणिभाव में स्थित, समाहि-समाधि को, पडिसंधए-प्राप्त करने वाला। मूलार्थ-गर्ग गोत्र वाला गर्गाचार्य नाम का स्थविर गणधर, सर्व शास्त्रों में कुशल, गुणों से सम्पन्न, गणिभाव में स्थित और त्रुटित समाधि को जोड़ने वाला एक मुनि हुआ था। टीका-प्रस्तुत गाथा में विषय की प्रस्तावना के लिए गर्गाचार्य नाम के एक महर्षि का वर्णन किया गया है। उस ऋषि का गर्ग गोत्र था, इसीलिए वे गार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए, वे सर्व-शास्त्र-निष्णात, गच्छ के संग्रह करने में कुशल, समयज्ञ और सर्व-गुण-सम्पन्न थे। तात्पर्य यह है कि आचार्य की जो आठ सम्पदाएं कही गई हैं, उनसे वे युक्त और समाधि-अनुसंधान-अर्थात् त्रुटित समाधि को फिर से जोड़ने वाले थे। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [६०] खलुंकिज्ज सत्तवीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy