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फिर कायोत्सर्ग को पार कर जिन-संस्तव "लोगस्सउज्जोयगरे" का पाठ करे, अपितु कई एक प्रतियों में गाथा के चतुर्थ चरण में 'वन्दईय तओ गुरुं' ऐसा पाठ भी देखने में आता है। उसका अर्थ यह है कि-कायोत्सर्ग को पार कर फिर गुरु की वन्दना करे, परन्तु इस पाठ की अपेक्षा ऊपर दिया गया पाठ ही समीचीन प्रतीत होता है। इस प्रकार पांचवें आवश्यक की विधि समाप्त हुई। अब छठे आवश्यक के विषय में कहते हैं -
पारियकाउस्सग्गो, वन्दित्ताण तओ गुरुं । तवं संपडिवज्जेत्ता, कुज्जा सिद्धाण संथवं ॥ ५२ ॥
पारितकायोत्सर्गः, वन्दित्वा ततो गुरुम् ।
तपः सम्प्रतिपद्य, कुर्यात् सिद्धानां संस्तवम् ॥५२॥ पदार्थान्वयः-पारिय-पार कर, काउस्सग्गो-कायोत्सर्ग, तओ-तदनुसार, गुरु-गुरु की, वन्दित्ताण-वन्दना करके, तवं-तप को, संपडिवज्जेत्ता-अंगीकार करके, सिद्धाण-सिद्धों का, संथवं-संस्तव, कुज्जा-करे।
मूलार्थ-कायोत्सर्ग को पार कर तदनन्तर गुरु की वन्दना करके फिर तप को अंगीकार कर सिद्धों का संस्तव करे। __टीका-प्रस्तुत गाथा में छठे आवश्यक की विधि का वर्णन किया गया है। जब पांचवें आवश्यक में यथाशक्ति तप को अंगीकार करने का निश्चय कर लिया, तब कायोत्सर्ग को पार कर गुरु की विधिपूर्वक वन्दना करके और पूर्व निश्चय के अनुसार तप को अंगीकार करके सिद्धों की स्तुति का पाठ पढ़े। तात्पर्य यह है कि गुरु से प्रत्याख्यान लेकर फिर सिद्धस्तव-नमोत्थुणं',इत्यादि का पाठ करे। अपि च-प्रथम पाठ अरिहंत प्रभु का और दूसरा सिद्ध भगवान का है। कदाचित् कारणवशात् तीसरा धर्माचार्यों का भी आता है। परन्तु इस स्थान पर तो प्रत्याख्यान के पश्चात् केवल सिद्धस्तव के पढ़ने की ही आज्ञा दी गई है।
अब उक्त विषय का उपसंहार और अध्ययन की समाप्ति करते हुए शास्त्रकार कहते हैं -
एसा सामायारी, समासेण वियाहिया । जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागरं ॥ ५३ ॥
त्ति बेमि। इति सामायारी छब्बीसइमं अज्झयणं समत्तं ॥ २६ ॥ एषा सामाचारी, समासेन व्याख्याता ।
१. इसके अतिरिक्त उक्त विषय का विशेष वर्णन देखने की जिज्ञासा रखने वाले आवश्यकसूत्र देखें।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५८] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं