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सव्वदुक्खविमोक्खणं-सर्व दु:खों से मुक्त करने वाला। ___ मूलार्थ-पाप से निवृत्त और निःशल्य होकर तदनुसार गुरु की वन्दना करके तत्पश्चात् सर्वदुःखों से मुक्त करने वाले कायोत्सर्ग को करे।
टीका जब मुनि लगे हुए अतिचारों की आलोचना कर चुके, तब फिर गुरु को वन्दना करके प्रतिक्रमण करे, अर्थात् श्रमण-सूत्र का पाठ करता हुआ पाप-कर्मों से पीछे हटे। इसका तात्पर्य यह है कि-पद और सम्पदा सहित पाठ करे और सर्व प्रकार के शल्यों से रहित होता हुआ चतुर्थ आवश्यक की पूर्ति करे। जब चतुर्थ आवश्यक विधि सहित पूरा हो जाए, तब गुरु की फिर विधि-पूर्वक वन्दना करके पांचवें आवश्यक की आज्ञा लेकर उसका आरम्भ करे। इस प्रकार जब पांचवें आवश्यक का पाठ पढ़ चुके, तब सर्व प्रकार के शारीरिक और मानसिक दु:खों की निवृत्ति और निजानन्द की प्राप्ति कराने वाले कायोत्सर्ग को करे। कायोत्सर्ग का अर्थ है-काया अर्थात् शरीर का उत्सर्ग अर्थात् त्याग करना। जैसे कोई पाषाण की प्रतिमा होती है, तद्वत् काय को पूर्णतया स्थिर रखकर देह की ममता एवं देहाकर्षण को छोड़ कर ध्यान में आरूढ़ होना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मुनि किस बात का चिन्तन करे अब उसके संबंध में कहते हैं
किं तवं पडिवज्जामि? एवं तत्थ विचिन्तए । काउस्संग्गं तु पारित्ता, करिज्जा जिणसंथवं ॥ ५१ ॥
किं तपः प्रतिपद्ये? एवं तत्र विचिन्तयेत् ।
कायोत्सर्गं तु पारयित्वा, कुर्यात् जिनसंस्तवम् ॥५१॥ - पदार्थान्वयः-कि-क्या, तवं-तप, पडिवज्जामि-ग्रहण करूं, एवं-इस प्रकार, तत्थ-उस ध्यान में, विचिन्तए-चिन्तन करे, काउस्सग्गं-कायोत्सर्ग को, पारिज्जा-पार कर, जिणसंथवं-जिन-संस्तव,
करिज्जा-करे।
___मूलार्थ-मैं क्या तप करूं, इस प्रकार का चिन्तन ध्यान में करे, फिर कायोत्सर्ग को पार कर जिन-संस्तवन का पाठ करे।
टीका-जब मुमुक्षु साधक कायोत्सर्ग नामक पांचवें आवश्यक का अरम्भ करे, तब उसमें इस प्रकार चिन्तन करे कि-आज मैं कौन से तप को ग्रहण करूं। कारण यह है कि भगवान् महावीर ने षट् मास-पर्यन्त तप किया था, अतः मैं भी देखें कि मुझ में कितनी तप करने की शक्ति विद्यमान है। तप की अपार महिमा है। आत्म-शुद्धि का यही एक सर्वोपरि विशिष्ट मार्ग है और इसी के द्वारा संसारी जीव विशुद्ध होकर परम कल्याण रूप मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
- तप बाह्य और आभ्यन्तर भेद से बारह प्रकार का है। यह तप षट् मास से लेकर पांच मास, चार मास, तीन मास, दो और एक मास तथा पक्ष और अर्धपक्ष यावत् यथाशक्ति एक-दो दिन तक भी किया जा सकता है।
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उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५७] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं