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करेज्ज-न करे, छह-छ:, ठाणेहिं-स्थानों से, से-आहार की गवेषणा, उ-फिर, इमेहि-इन वक्ष्यमाण कारणों से, अणइक्कमणाइ-अनतिक्रमण संयम से, से-उसका, होइ-होता है, य-समुच्चय अर्थ में, चेव-पादपूर्ति में है।
मूलार्थ-धृतिमान् साधु और साध्वी इन वक्ष्यमाण छः कारणों से (उक्त कारणों के उपस्थित होते हुए भी) आहार-पानी की गवेषणा न करे, तभी उसके संयम का अतिक्रमण नहीं होता।
___टीका-इस गाथा में यह बताया गया है कि पूर्वोक्त कारणों के उपस्थित होने पर यदि वक्ष्यमाण छ: कारण उपस्थित हों, तो धैर्यशील साधु और साध्वी आहार-पानी को ग्रहण न करे। ___ इस कथन का अभिप्राय यह है कि प्रथम आहार ग्रहण करने के जो छ: कारण बताए गए हैं, उनमें से एक कारण संयम-रक्षा भी है, किन्तु यदि वक्ष्यमाण कारणों के उपस्थित हो जाने पर साधु व साध्वी आहारादि की गवेषणा न करें, तो उनके संयम का अतिक्रमण-उल्लंघन नहीं हो सकता, इसलिए आहार विधि भी एकान्त नहीं है।
जिन कारणों के उपस्थित होने पर साधु के लिए आहारादि गवेषणा का विधान नहीं, अब उन कारणों के विषय में कहते हैं -
आयंके उवसग्गे, तितिक्खया बम्भचेरगुत्तीसु। पाणिदया तवहेउं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए ॥ ३५ ॥
आतंक उपसर्गे, तितिक्षया ब्रह्मचर्यगुप्तिष।
प्राणिदयाहेतोः तपोहेतोः, शरीरव्यवच्छेदार्थाय ॥ ३५ ॥ पदार्थान्वयः-आयंके-आतंक एवं रोग आदि के उत्पन्न होने पर, उवसग्गे-उपसर्ग के आ जाने पर, तितिक्खया-तितिक्षा के लिए, बम्भचेरगुत्तीसु-ब्रह्मचर्य की गुप्ति अर्थात् रक्षा के लिए, पाणिदया-प्राणियों की दया के लिए, तवहेउं-तप के निमित्त, सरीर-शरीर के, वोच्छेयणट्ठाएव्यवच्छेदनार्थ।
मूलार्थ-रोग के होने पर, उपसर्ग के आने पर, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, तितिक्षा के सहने पर, प्राणियों की दया के लिए, तप के लिए और शरीर व्यवच्छेदनार्थ-अनशन व्रत के लिए (साधु को आहारादि की गवेषणा नहीं करनी चाहिए।)
टीका-प्रस्तुत गाथा में बताए गए आहार-त्याग के कारणों का अभिप्राय इस प्रकार है, यथा
जब कभी ज्वरादि रोगों का आक्रमण हो जाए, तब कुछ समय के लिए आहार का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि अधिकतर रोग अजीर्णता को लेकर ही उत्पन्न होते हैं, अतः ऐसे रोगों में आहार का त्यागना ही श्रेयस्कर है।
दूसरे-उपसर्गों के उत्पन्न होने पर भी आहार का त्याग करना हितकर है। जैसे कि-दीक्षा-ग्रहण करते समय स्वजनादि वर्ग अधिक विलाप करता हो, तब भी आहार नहीं करना चाहिए। देवता-संबंधी
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४६] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं