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________________ मूलार्थ-क्षुधा-वेदना की शांति के लिए, गुरु-जनों की सेवा के लिए, ईर्यासमिति के लिए और संयम तथा प्राणों की रक्षा के लिए एवं छठे-धर्म-चिन्तन के लिए (साधु को आहार-पानी की गवेषणा करनी चाहिए। टीका-प्रस्तुत गाथा में आहार-पानी के लिए गवेषणा करने के कारणों का उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत गाथा का अभिप्राय यह है कि वेदनादि छ: कारणों में से किसी एक कारण को लेकर ही साधु को आहारादि की गवेषणा में प्रवृत्त होना चाहिए। जैसे कि - भूख और प्यास की वेदना को शान्त करने के लिए ही साधु को आहार-पानी ग्रहण करना चाहिए, न कि जिह्वा के स्वाद के लिए, पहले-क्षुधा-वेदना के बढ़ने से धर्म-ध्यान में बाधा उपस्थित हो जाती है, अतः उसकी शान्ति के लिए आहारादि करना चाहिए। दूसरे-गुरू आदि की सेवा-भक्ति करने के उद्देश्य से आहार करना चाहिए, यदि आहार न किया जाए, तो गुरुजनों की सेवा-भक्ति का होना कठिन हो जाता है। ____तीसरे-बिना भोजन किए आंखों की ज्योति भी मंद पड़ जाती है, और उसके मन्द पड़ने से ईर्यासमिति के व्यवहार में बाधा आने की संभावना रहती है, इसलिए ईर्यासमिति की रक्षा के लिए आहार ग्रहण करना चाहिए। चौथे-संयम पालन के लिए भी आहार कर लेना चाहिए। कारण यह है कि यदि साधक आहार नहीं करता, तब उसकी चित्तवृत्तियां सचित्त पदार्थों के खाने में जाती हैं जिससे संयम का विघात हो जाता है, अतः संयम के निर्वाहार्थ भी आहार का करना आवश्यक है। . . पांचवें-प्राणों की रक्षा के लिए भी आहार न किया जाए तो अविधि से मृत्यु की प्राप्त होने की संभावना रहती है और इस प्रकार का आत्मघात हिंसास्पद होने से दुर्गति का पोषक है, अतः प्राण-रक्षा के लिए आहार कर लेना चाहिए। - छठे-धर्म-चिन्ता के लिए भी आहार का लेना आवश्यक है, कारण यह है कि क्षुधा और पिपासा की प्रबलता से धर्म-ध्यान के बदले आर्त-ध्यान के उत्पन्न होने की संभावना अधिक रहती है, अत: सिद्ध हुआ कि श्रुतधर्म और व्यवहार-धर्म का पालन करने के लिए तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय के लिए आहार करने का निषेध नहीं है, क्योंकि आकुल चित्त से धर्म का चिंतन नहीं हो सकता। उक्त कारणों के उपस्थित होने पर आहारादि की गवेषणा आवश्यकता है अथवा नहीं, अब इस विषय में कहते हैं - निग्गन्थो धिइमन्तो, निग्गन्थी वि न करेज्ज छहिं चेव। ठाणेहिं उ इमेहिं, अणइक्कमणाइ से होइ ॥ ३४ ॥ निर्ग्रन्थो धृतिमान्, निर्ग्रन्थ्यपि न कुर्याद् षड्भिश्चैव। स्थानैस्त्वेभिः, अनतिक्रमणाय तस्य भवति (तानि) ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः-निग्गन्थो-निर्ग्रन्थ-साधु, धिइमन्तो-धृतिमान्, निग्गन्थी-साध्वी, वि-भी, न ___ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४५] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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