SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अणच्चावियं अवलियं, अणाणुबंधिममोसलिं चेव । छप्पुरिमा नव खोडा, पाणीपाणिविसोहणं ॥ २५ ॥ अनर्तितमवलितं, अननुबंध्यमौशली चैव । षट्पूर्वा नवखोटकाः, पाणिप्राणिविशोधनं ॥ २५ ॥ . पदार्थान्वयः-अणच्चावियं-वस्त्र व शरीर को नचावे नहीं, अवलियं-वस्त्र की मोटन न करे, अणाणुबंधि-निरन्तर, च-फिर, अमोसलिं-मोसलि न होवे, छप्पुरिमा-षट्पूर्वा-वस्त्र की विभाग रूप वा प्रस्फोटन रूप, नव-नौ, खोडा-खोटकाप्रस्फोटन रूप, पाणी-हाथ में, पाणि-प्राणियों का, विसोहणं-विशोधन करना। मूलार्थ-वस्त्र को नचावे नहीं, भित्ति आदि से लगावे नहीं, किन्तु निरन्तर उपयोग पूर्वक प्रतिलेखना करे तथा षट्पूर्व नवखोटक हाथों में लेकर प्राणियों का विशोधन करे। टीका-प्रस्तुत गाथा में भी प्रतिलेखना विधि का ही विशेष प्रकार से वर्णन किया गया है। जिस प्रकार से शरीर और वस्त्र नृत्य न करें उस प्रकार प्रतिलेखना करे; अर्थात् प्रतिलेखना करते समय शरीर और वस्त्र को फटकावे नहीं। फिर वस्त्र और शरीर का मोटन न हो इस प्रकार प्रतिलेखना करे तथा कार वस्त्र का कोई भी विभाग अलक्ष्यमान न हो उस प्रकार प्रतिलेखना करे. अर्थात उपयोग पूर्वक प्रतिलेखना करे। इसी का नाम अननुबंधि है। भित्ति आदि से वस्त्र का स्पर्श न होवे, यदि नीचे-ऊंचे और तिर्यग् में वस्त्र का स्पर्श हो रहा हो, तो वह शुद्ध प्रतिलेखना नहीं होगी। फिर वस्त्र की प्रतिलेखना करते समय वस्त्र के तीन भाग कर लेने चाहिएं; तीन भाग करके एक तरफ से देख लिए गए, फिर दूसरी ओर के देख लिए जाएं, उन छः भागों की पूर्वा संज्ञा है, ये भी प्रस्फोटन-रूप क्रियाविशेष है। फिर उन तीन भागों में से प्रत्येक भाग की तीन-तीन बार प्रस्फोटना की जाती है। इस प्रकार नवखोटक हो जाते हैं। इसी प्रकार दूसरी ओर भी नवखोटक किए जाएं, तो उनकी प्रखोटक संज्ञा हो जाती है। फिर उसमें उपयोग रखना चाहिए, जिससे कि उसमें यदि कोई जीव हो तो उसको यत्न पूर्वक पृथक् कर दिया जाए, ताकि किसी क्षुद्र जीव का वध न होने पाए। जिस प्रकार प्रतिलेखना के विषय में कहा गया है उपलक्षण से उसी प्रकार प्रमार्जन के विषय में भी जान लेना चाहिए। षट्पूर्वा- ॥ नवखोटक-।। । । । जिस दोनों ओर करने से दोनों ओर करने से षट् होते हैं। नौ-प्रखोटक होते हैं। अब प्रतिलेखना के दोष दूर करने के विषय में कहते हैं आरभडा सम्मद्दा, वज्जेयव्वा य मोसली तइया । पप्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइया छट्ठी ॥ २६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३८] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy