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बीसवीं गाथा के चतुर्थपाद में पात्रों की प्रतिलेखना का वर्णन किया गया है, तो क्या जब कि पात्रों की प्रतिलेखना की जाएगी, तो उसके साथ में जिस वस्त्र में वे पात्र बंधे हुए हैं उसकी प्रतिलेखना नहीं की जाएगी, उसकी भी साथ ही में प्रतिलेखना होगी ही। संग्रह-नय के मत से यहां पर पात्र शब्द से पात्रों के उपकरण का भी साथ में ही ग्रहण किया गया है। ___इस सारे कथन का सारांश यह है कि प्रथम तो साधु अपने चिन्ह वाले उपकरणों-मुख-वस्त्रिका
और रजोहरणादि-की प्रतिलेखना करे और फिर वस्त्रों की प्रतिलेखना करे। जैसे कि प्रथम मुख पर से वस्त्रिका को उतार कर उसकी प्रतिलेखना करनी और फिर अंगुलियों से रजोहरण और उसके बाद वस्त्रों की प्रतिलेखना करनी। यही हमारे गच्छ की सामाचारी है जो कि आज तक बराबर प्रवर्तमान है। आगे तो जो केवली भगवान को अभिमत हो वही ठीक है; क्योंकि तत्व केवली-गम्य है। ___अब वस्त्र-प्रतिलेखना की विधि में कुछ और जानने योग्य विषय का प्रतिपादन करते हैं, यथा
उड्ढं थिरं अतुरियं, पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे। तो बिईयं पप्फोडे, तइयं च पुणो पमज्जिज्जा ॥ २४ ॥
उर्ध्वं स्थिरमत्वरितं, पूर्वं तावद् वस्त्रमेव प्रतिलेखयेत्।
ततो द्वितीयं प्रस्फोटयेत्, तृतीयं च पुनः प्रमृज्यात् ॥ २४ ॥ पदार्थान्वयः-उड्ढे-ऊंचा, थिरं-स्थिर, अतुरियं-शीघ्रता से रहित, पुव्वं-पूर्व, ता-पहले, वत्थमेव-वस्त्र की ही, पडिलेहे-प्रतिलेखना करे, तो-तदनन्तर, बिइयं-द्वितीय, पप्फोडे-प्रस्फोटना करे, च-फिर, तइयं-तृतीय, पुणो-फिर, पमजिजा-प्रमार्जना करे।
मूलार्थ-सबसे पहले ऊर्ध्व, स्थिर और शीघ्रता से रहित वस्त्र की प्रतिलेखना करे, द्वितीय-वस्त्र की प्रस्फोटना करे, तृतीय-वस्त्र की प्रमार्जना करे। _____टीका-इस गाथा में वस्त्र-प्रतिलेखना की विधि का निरूपण किया गया है। जैसे कि-जब वस्त्र की प्रतिलेखना करनी हो, तब वस्त्र को काय से ऊंचा रखना और उसका तिर्यग् विस्तार करना, अर्थात् उत्कुटुक आसन पर बैठकर (पैरों के बल बैठकर) वस्त्र को ऊंचा रक्खे और उसका तिरछा विस्तार करे। फिर उसको दृढता से पकड़े और शीघ्रता न करे तथा दृष्टि को प्रतिलेखना में रखे; यह प्रतिलेखना की प्रथम विधि है।
- इस प्रकार प्रतिलेखना करते समय यदि वस्त्र आदि में कोई जीव दृष्टिगोचर हो तो यत्न पूर्वक वस्त्र की प्रस्फोटना करे, अर्थात् एकान्त में वस्त्र को झाड़ दे; यह द्वितीय विधि है। .: तीसरी विधि यह है कि-प्रस्फोटना करने पर भी यदि जीव वस्त्र से अलग न हो, तब उस जीव को हाथ में लेकर किसी एकान्त स्थान में रख दे। यह वस्त्र-प्रतिलेखना का प्रकार है जो कि यत्न-पूर्वक करना चाहिए ताकि किसी क्षुद्र जीव का घात न हो। .
अब फिर इसी विषय में कहते हैं
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उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३७] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं