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________________ अब इनकी कायस्थिति के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा पलिओवमाइं तिन्नि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पुव्वकोडिपुहुत्तेण, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ २०० ॥ कायठिई मणुयाणं, पल्योपमानि त्रीणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । पूर्वकोटिपृथक्त्वेन, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ॥ २०० ॥ कायस्थितिर्मनुजानाम्, पदार्थान्वयः-तिन्नि-तीन, पलिओवमाइं-पल्योपम, उ-और, पुव्वकोडिपुहुत्तेणं-पृथक् पूर्व कोटि अधिक, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से तथा, जहन्निया-जघन्य, अंतोमुहत्तं-अन्तर्मुहूर्त की, वियाहिया-कथन की गई है, कायठिई-कायस्थिति, मणुयाणं-मनुष्यों की। मूलार्थ-मनुष्यों की कायस्थिति जघन्य तो अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पल्य सहित पृथक् पूर्व कोटि की है। टीका-यदि मनुष्य मरकर मनुष्य ही बनता रहे तो कम से कम तो वह अन्तर्मुहूर्त तक ही अपनी मनुष्य-काया में स्थिति कर सकता है और अधिक से अधिक वह करोड़-करोड़ पूर्व के निरंतर सात मनुष्य-भव करके आठवें भव में तीन पल्योपम की उत्कृष्ट आयु वाला युगलिया बनता है। तदनन्तर वह मनुष्य-भव को छोड़कर देवगति में जन्म लेता है, अर्थात् देवता बन जाता है। अब इनके अन्तरकाल का विचार करते हैं, यथा- . . अंतरं तेसिमं भवे । अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ २०१ ॥ अन्तरं तेषामिदं भवेत् । अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् ॥ २०१ ॥ पदार्थान्वयः-उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल, जहन्नयं-जघम्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त्त, तेसिमं-यह उन मनुष्यों का, अंतरं-अन्तरकाल, भवे-होता है। मूलार्थ-मनुष्यों का जघन्य अंतर अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनंतकाल का है। टीका-मनुष्य अपनी योनि को छोड़कर यदि उसी योनि को पुनः धारण करे तो इन दोनों के बीच के समय का प्रमाण कम से कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक अनन्तकाल का है। तात्पर्य यह है कि जघन्य दशा में तो अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही मनुष्य मरकर अन्य योनि में जाकर फिर मनुष्य बन जाता है और उत्कृष्टता में उसे अनन्तकाल लग जाता है। कारण यह है कि यदि कदाचित् मनुष्य मर कर वनस्पति में चला गया और वहां पर उसकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल की है तब तो अनन्त काल का समय अवश्य व्यतीत करना होगा, इसलिए मनुष्यों का उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल तक का माना गया है। अब प्रकारान्तर से इनके भेदों को कहते हैं, यथा उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४५४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अन्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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