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________________ अर्थात् - १. विष्ठा में, २. मूत्र में, ३. श्लेष्मा में, ४. नासिका के मल में, ५. वमन में, ६. पित्त में, ७. पूय में, ८. रुधिर में, ९. शुक्र में, १०. शुक्रपुद्गल के परिशाट में, ११. विगत कलेवर में, १२. स्त्रीपुरुष के संयोग में, १३. ग्राम के गटर में, और (१४) मनुष्य के सब प्रकार के अपवित्र स्थानों में संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। इनकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। ये सभी जीव, लोक के एकदेश में निवास करते हैं और इन दोनों के भेदों की संख्या समान ही है। अब इनकी काल - सापेक्ष अनादिता और सादिता का वर्णन करते हैंसंतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १९८ ॥ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिका, सपर्यवसिता अपि च ॥ १९८ ॥ - पदार्थान्वयः - संत-सन्तति की, पप्प- अपेक्षा से, अणाईया - अनादि, य-और, अपज्जवसियाविअपर्यवसित भी है, ठिइं- स्थिति की, पडुच्च प्रतीति से, साईया - सादि, य-और, सपज्जवसियाविसपर्यवसित भी है। मूलार्थ - प्रवाह की अपेक्षा से मनुष्य जाति अनादि और अनन्त है, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से वह आदि और अन्त से युक्त है। -सन्तति अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से देखा जाए तो मनुष्य जाति अनादि और अनन्त है, परन्तु इसकी भवस्थिति और कायस्थिति का विचार करने से यह सादि - सान्त सिद्ध होती है। यद्यपि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूपकाल चक्र का विचार करने से मनुष्य जाति की न्यूनाधिकता तो अवश्य होती रहती है, परन्तु इसका सर्वथा अभाव किसी समय में भी नहीं होता। सारांश यह है कि अपेक्षाभेद से मनुष्य जाति में अनादि - अनन्तता और सादि - सान्तता दोनों ही धर्म उपलब्ध होते हैं। अब इनकी आयु -स्थिति का वर्णन करते हैं, यथा पलिओवमाइं तिन्नि य, उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई मणुयाणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १९९ ॥ फ्ल्योपमानि त्रीणि च, उत्कर्षेण व्याख्याता । आयुः स्थितिर्मनुजानाम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ॥ १९९ ॥ पदार्थान्वयः - मणुयाणं - मनुष्यों की, आउठिई - आयुस्थिति, जहन्निया - जघन्य, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त्त, य- पुनः, उक्कोसेण- उत्कर्ष से, तिन्नि-तीन, पलिओवमाइं- पल्योपम की, वियाहिया - कही गई है। मूलार्थ - मनुष्यों की जघन्य आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की कही गई है। टीका - प्रस्तुत गाथा का भावार्थ स्पष्ट है, अतः इस गाथा की व्याख्या नहीं की गई है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४५३] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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