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पदार्थान्वयः - लोएगदेसे - लोक के एकदेश में, ते सव्वे - वे सब, वियाहिया - कहे गए हैं, न सव्वत्थ - सर्वत्र नहीं, इत्तो- इसके अनन्तर तेसिं- उनके, चउव्विहं चार प्रकार के, कालविभागं-कालविभाग को, वोच्छं- मैं कहूंगा।
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मूलार्थ-वे स्थलचर जीव लोक के एकदेश में रहते हैं, सर्वत्र नहीं रहते। इसके अनन्तर अब मैं उनके चार प्रकार के काल-विभाग का वर्णन करता हूं।
टीका-स्थल में रहने वाले ये सभी जीव एकदेशी हैं, सर्वदेशी नहीं, अर्थात् ये सूक्ष्मकाय की भांति सर्व-लोक-व्यापी नहीं, किन्तु लोक के किसी एकदेश में ही उनकी स्थिति मानी जाती है। अब काल-विभाग का उल्लेख करते हैं, यथा
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संतइं पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १८३ ॥ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १८३ ॥ पदार्थान्वयः - संत - सन्तति की, पप्प - अपेक्षा से, अणाईया - अनादि, यअपज्जवसियावि-अपर्यवसित भी हैं, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च - अपेक्षा से, साईया - सादि, य-और, सपज्जवसियावि- सपर्यवसित भी हैं।
मूलार्थ - स्थलचर जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि - अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त कथन किए गए हैं।
टीका-स्थलचर जीव संतति अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से वे आदि और अन्त सहित हैं। इस प्रकार अनादि, सादि, अनन्त, और सान्त, ये चार भेद इनके काल - सापेक्ष्य माने जाते हैं।
अब इनकी भव- स्थिति का वर्णन करते हैं
पलिओमाइं तिन्नि उ, उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई थलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १८४ ॥ पल्योपमानि त्रीणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । आयुःस्थितिः स्थलचराणाम्, अन्तर्मुहूर्त्तं जघन्यका ॥ १८४ ॥
पदार्थान्वयः- तिन्नि-तीन, पलिओवमाइं- पल्योपम की, आउठिई - आयुस्थिति, उ-तो, थलयराणं - स्थलचरों की, उक्कोसेण- उत्कृष्टरूप से, वियाहिया - प्रतिपादन की गई है, जहन्निया - जघन्य स्थिति, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त की कही गई है।
मूलार्थ - स्थलचर जीवों की जघन्य आयु-स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की प्रतिपादन की गई है।
टीका - स्थलचर जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम तक हो जाती है, क्योंकि जो अकर्म-भूमिज स्थलचर तिर्यंच हैं उनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम की होती है, परन्तु यह कथन
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४४५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं