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द्वाविंशतिसागरोपमाण्यायुः, उत्कर्षेण व्याख्याता । .. षष्ठ्यां जघन्येन, सप्तदशसागरोपमाणि ॥ १६५ ॥ पदार्थान्वयः-छट्ठीए-छठी नरक-पृथिवी में, जहन्नेणं-जघन्य रूप से, सत्तरस-सप्तदश, सागरोवमा-सागरोपम, आयु-आयु है, और, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, बावीससागरा-बाईस सागर की, वियाहिया-कथन की गई है।
मूलार्थ-छठे नरक में वर्तमान जीवों की जघन्य आयु सत्रह सागरोपम की और उत्कृष्ट बावीस सागरोपम की कथन की गई है।
टीका-छठे नरक-स्थान की आयु का प्रमाण कम से कम सत्रह सागर और अधिक से अधिक बावीस सागरोपम का होता है। अब सातवीं नरक-भूमि के विषय में कहते हैं, यथा
तेत्तीससागराऊ, उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥१६६ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरायुः, उत्कर्षेण व्याख्याता ।
सप्तम्यां जघन्येन, द्वाविंशतिः सागरोप्रमाणि ॥ १६६ ॥ पदार्थान्वयः-सत्तमाए-सातवीं नरक-भूमि में जीवों की, जहन्नेणं-जघन्य रूप से, आऊ-आयु की स्थिति, बावीसं सामरोवमा-२२ सागरोपम की है, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, तेत्तीससागरा-३३ सागरोपम की, वियाहिया-कथन की गई है। . मूलार्थ-सातवें नरक में रहने वाले जीवों की कम से कम निवास-स्थिति बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की कही गई है।
टीका-सप्तम नरकवर्ती जीवों की आयु का मान कम से कम २२ सागरोपम और अधिक से अधिक ३३ सागरोपम का कहा गया है। अब नारकी जीवों की कायस्थिति के सम्बन्ध में कहते हैं
जा चेव उ आउठिई, नेरइयाणं वियाहिया । सा तेसिं कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भवे ॥ १६७ ॥ या चैव तु आयुःस्थितिः, नैरयिकाणां व्याख्याता ।
सा तेषां कायस्थितिः, जघन्यकोत्कृष्टा भवेत् ॥ १६७ ॥ पदार्थान्वयः-जा-जो, आउठिई-आयुस्थिति, नेरइयाणं-नारकी जीवों की, वियाहिया-कथन की गई है, उ-पुनः, सा-वही, तेसिं-उनकी, कायठिई-कायस्थिति, जहन्नुक्कोसिया-जघन्योत्कृष्ट, भवे-होती है, एव-भिन्न क्रम में, च-वक्तव्य के उपन्यास में आया हुआ है। ...मूलार्थ-नारकी जीवों की जितनी आयु-स्थिति है, उतनी ही उनकी कायस्थिति भी कही गई है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४३७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं