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________________ लोकस्यैकदेशे, ते सर्वे तु व्याख्याताः । इतः कालविभागन्तु, तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम् ॥ १५८ ॥ ___ पदार्थान्वयः-लोगस्स-लोक के, एगदेसम्मि-एक देश में, ते सव्वे-वे सब नारकी, वियाहिया-कथन किए गए हैं, उ-पुनः, इत्तो-इसके अनन्तर, तेसिं-उन नारकियों के, चउव्विहं-चतुर्विध, कालविभागं-कालविभाग को, वोच्छं-कहूंगा, तु-प्राग्वत्। मूलार्थ-वे सब नारकी जीव लोक के एक देश में रहते हैं। अब मैं इनके चतुर्विध काल विभाग को कहता हूं। टीका-प्रस्तुत गाथा में नारकी जीवों की क्षेत्र-स्थिति का वर्णन करने के बाद उनके चतुर्विध काल-विभाग के वर्णन करने की प्रतिज्ञा का उल्लेख किया गया है। नारकी जीव लोक के एक देश विशेष में ही रहते हैं। काल-विभाग से उनकी सादि-सान्तता और अनादि-अनन्तता का वर्णन करना ही शास्त्रकार को अभिप्रेत है। तथाहि संतइं पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १५९ ॥ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १५९ ॥ पदार्थान्वयः-संतइं-सन्तान की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसियाविअपर्यवसित भी हैं, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च-अपेक्षा से, साईया-सादि, य-और, सपज्जवसियाविसपर्यवसित भी हैं। मूलार्थ-नारकी जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि तथा सपर्यवसित अर्थात् आदि और अन्त वाले हैं। टीका-ऐसा कोई समय नहीं था जब कि नारकी जीवों का सद्भाव न हो तथा ऐसा भी कोई काल उपलब्ध नहीं होता, जब कि उनका सर्वथा अन्त हो जाए, किन्तु इनका अनादिकाल से प्रवाह चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा, इसलिए प्रवाह की अपेक्षा से ये अनादि-अनन्त कहे जाते हैं। परन्तु इनकी आयुस्थिति और कायस्थिति आदि की ओर ध्यान देने से ये सादि-सान्त सिद्ध होते हैं, अर्थात् इनके आदि और अन्त दोनों ही हैं। अब इनकी स्थिति के विषय में कहते हैं सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण वियाहिया । पढमाए जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥ १६० ॥ ___ सागरोपममेकन्तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । प्रथमायां जघन्येन, दशवर्षसहस्त्रिका ॥ १६० ॥ पदार्थान्वयः-पढमाए-प्रथम पृथिवी में, जहन्नेणं-जघन्यता से, दसवाससहस्सिया-दस हजार उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४३४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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