SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . त्रीण्येव सहस्राणि, वर्षाणामुत्कृष्टा भवेत् । आयुः स्थितिर्वायूनाम्, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥ १२२ ॥ पदार्थान्वयः-वाऊणं-वायुकाय के जीवों की, जहन्निया-जघन्य, आउठिई-आयुस्थिति, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त की, भवे-होती है और, उक्कोसिया-उत्कृष्ट आयुस्थिति, तिण्णेव-तीन, सहस्साइं-हजार, वासाण-वर्षों की हुआ करती है। मूलार्थ-वायुकाय के जीवों की आयु-स्थिति जघन्य अर्थात् कम से कम अन्तर्मुहूर्त की होती है और उसका उत्कृष्ट आयुमान तीन हजार वर्षों का माना गया है। _____टीका-इस गाथा में वायुकाय के जीवों की आयु-स्थिति का वर्णन किया गया है। इनकी उत्कृष्ट आयुस्थिति तो तीन हजार वर्ष और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की होती है। अब इनकी कायस्थिति का वर्णन करते हैं, यथा असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई वाऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ १२३ ॥ . असङ्ख्यकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका । कायस्थितिर्वायूनाम्, तं कायन्त्वमुञ्चताम् ॥ १२३ ॥ पदार्थान्वयः-तं कायं-उस काया को, तु-पुनः, अमुंचओ-न छोड़ते हुए, वाऊणं-वायुकाय के जीवों की, जहन्निया-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त, उक्कोसा-उत्कृष्ट, असंखकालं-असंख्यकाल की, कायठिई-कायस्थिति होती है। ____ मूलार्थ-यदि वायुकाय के जीव स्व-भव मे ही जन्म-मरण करते रहें तो उनकी इस कायस्थिति का उत्कृष्ट समय तो असंख्यकाल का है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है। ____टीका-वायुकाय के जीवों की कायस्थिति कम से कम अन्तर्मुहूर्त की और अधिक से अधिक असंख्यातकाल की मानी गई है, तात्पर्य यह है कि इसके पश्चात् वे अपनी काया को त्याग कर दूसरी काया में चले जाते हैं। अब वायु-काय के अन्तर का उल्लेख करते हैं अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं . जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, वाऊजीवाण अंतरं ॥१२४॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, वायुजीवानामन्तरम् ॥ १२४ ॥ पदार्थान्वयः-वाऊजीवाण-वायुकाय के जीवों का, अंतरं-अन्तरकाल, सए काए-स्व-काय के, विजढम्मि-छोड़ने पर, उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल और, जहन्नयं-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त का है। मूलार्थ-वायुकाय के जीवों को स्वकाय के छोड़ने में जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अन्तर पड़ जाता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४१९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy