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________________ असंख्यात काल की है। बादर निगोद की काय स्थिति जघन्य तो अन्तर्मुहूर्त्त मात्र की ही है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति उसकी भी ७० कोटाकोटी सागरोपम की ही मानी गई है, परन्तु सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल कही है। तात्पर्य यह है कि जघन्य स्थिति तो इन सब की समान ही है, परन्तु उत्कृष्ट स्थिति में ऊपर लिखा अन्तर है, इसलिए सूत्रकार ने जो अनन्त काल की उत्कृष्ट स्थिति कही है वह सामान्यतया पनक-जीवों की ही है। इस प्रकार सामान्यरूप से वनस्पतिकाय के जीवों की काय स्थिति का वर्णन करने के अनंतर अब उसका अन्तर बताते हैं, यथा असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्म सकाए, पणगजीवाण अंतरं ॥ १०४ ॥ असङ्ख्यकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, पनकजीवानामन्तरम् ॥ १०४ ॥ पदार्थान्वयः-पणगजीवाण - पनक - जीवों के, सए काए - स्वकाय के, विजढम्म - छोड़ने पर, जहन्नयं - जघन्य, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त्त, और, उक्कोसं - उत्कृष्ट, असंखकालं -असंख्यातकाल का, अंतरं - अन्तर होता है। मूलार्थ - वनस्पतिकाय के जीवों का स्वकाय के छोड़ने पर जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त्त - प्र और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक का है। -प्रमाण टीका-वनस्पतिकाय का जीव वनस्पतिकाय को छोड़कर अन्यत्र गया हुआ, पुनः वनस्पतिकाय में कितने समय के बाद आ सकता है? इसके समाधान में यह कहा गया है उत्कृष्ट असंख्य काल और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त के बाद वह वापिस आ सकता है। तात्पर्य यह है कि पृथिवीकाय आदि की उत्कृष्ट काय स्थिति असंख्यात काल की कही गई है, तदनुसार वनस्पतिकाय से निकलकर जीव यदि अन्य काय में रहे तो उसकी उत्कृष्ट स्थिति भी असंख्यात काल की ही होती है, अर्थात् वह अधिक से अधिक असंख्यात काल तक वहां रह सकता है। इसके पश्चात् वह वनस्पतिकाय में वापिस आ सकता है। अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि -. एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥ १०५ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ १०५ ॥ पदार्थान्वयः - एएसिं- इन जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, गंधओ - गन्ध से, च- और, रसफासओ-रस उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४१०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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