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________________ .. दश चैव सहस्राणि, वर्षाणामुत्कृष्टा भवेत् । वनस्पतीनामायुस्तु, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् ॥ १०२ ॥ पदार्थान्वयः-दस-दस, सहस्साइं-हजार, वासाण-वर्षों की, उक्कोसिया-उत्कृष्ट, आउं-आयु, वणस्सईणं-वनस्पति के जीवों की, भवे-होती है, तु-फिर, जहन्नयं-जघन्य आयु, अंतोमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्त की होती है, च-एव-पादपूर्ति में हैं। मूलार्थ-वनस्पतिकाय के जीवों की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष की होती है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्वीकार की गई है। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में वनस्पतिकाय के जीवों का उत्कृष्ट और जघन्य आयु-मान बताया गया है, परन्तु यह आयुमान प्रत्येक वनस्पति का है, अर्थात् प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों की ही उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, परन्तु जो साधारण वनस्पति है उसकी तो उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकार की आयु केवल अन्तर्मुहूर्त की ही मानी गई है। इस प्रकार आयुस्थिति की अपेक्षा से वनस्पतिकाय की यहां सादि-सान्तता प्रमाणित की गई है। अब काय-स्थिति का वर्णन करते हैं अणंतकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । .. कायठिई पणगाणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ १०३ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका । कायस्थितिः पनकामां, तं कायन्त्वमुञ्चताम् ॥ १०३ ॥ पदार्थान्वयः-अणंतकालं-अंनंतकाल, उक्कोसा-उत्कृष्ट, अंतोमुहत्तं-अन्तर् मुहूर्त, जहन्निया-जघन्य, कायठिई-कायस्थिति, पणगाणं-वनस्पति के जीवों की है, तं कायं-उस काया को, तु-फिर, अमुंचओ-न छोड़ते हुओं की। मूलार्थ-उस काया को न छोड़ते हुए वनस्पति के जीवों की काय-स्थिति उत्कृष्ट अनन्त काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। ___टीका-यदि वनस्पतिकाय का जीव वनस्पतिकाय में ही जन्मता और मरता रहे तो वह कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक जन्म-मरण करता रहेगा, अर्थात् अपनी काया को छोड़कर अन्य काया में प्रविष्ट होने के लिए उसको कम से कम और अधिक से अधिक कितना समय अपेक्षित है ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं कि वनस्पतिकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अनन्तकाल की है, अर्थात् न्यून से न्यून तो अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् और अधिक से अधिक अनन्तकाल के बाद वह स्व-काय को छोड़कर अन्य काय में जाता है। यह काय-स्थिति सामान्य प्रकार से पनक-जीवों की कही गई है जो कि निगोद के जीवों की अपेक्षा से सिद्ध होती है तथा यदि विशेषता से देखा जाए तो प्रत्येक-वनस्पति और बादर तथा सूक्ष्म निगोद, इन सबकी काय-स्थिति असंख्यातकाल की होती है। यथा · बादर-प्रत्येक-वनस्पतिकाय के जीवों की कायस्थिति जघन्यरूप से अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण और उत्कृष्ट रूप से ७० कोटा-कोटी सागरोपम की है तथा निगोद के जीवों की जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट ___उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४०९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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