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हरिली सिरिली सिस्सिरिली, यावतिकश्च कन्दली । पलाण्डुलशुनकन्दश्च, कन्दली च कुहुव्रतः ॥ ९७ ॥ लोहनी हुताक्षी हुतकन्दः, कुहकश्च तथैव च । कृष्णश्च वज्रकन्दश्च, कन्दः सूरणकस्तथा ॥ ९८ ॥ अश्वकर्णी च बोद्धव्या, सिंहकर्णी तथैव च ।
मुसुण्ढी व हरिद्रा च, अनेकधा एवमादिका ॥ ९९ ॥ पदार्थान्वयः-हरिली-हरिली कन्द, सिरिली-सिरिली कन्द, सिस्सिरिली-सिस्सिरीली कन्द, जावईके-यावतिक कन्द, कंदली-कन्दली कन्द, पलंडु-पलांडु कन्द-प्याज, लसणकंदे-लशुन कन्द, (थोम-लसण) कन्दली य कुहुव्वए-कुहुव्रत, कंदली कन्द, लोहिणी-लोहिनी कन्द, हूयथी-हुताक्षी कन्द, हूय-हूतकन्द, य-तथा, तहेव-उसी प्रकार, कुहगा-कुहक कन्द, य-और, कण्हे-कृष्णकन्द, य-तथा, वज्ज कंदे-वज्र कन्द, तहा-तथा, सूरणए-सूरण कन्द-जिमीकन्द, अस्सकण्णी -अश्वकर्णी कन्द, य-तथा, मुसुंढी-मुसुंढीकन्द, य-और, हलिद्दा-हरिद्राकन्द, एवमायओ-इत्यादि, णेगहा-अनेक प्रकार की साधारण वनस्पति हैं।
मूलार्थ-हरिली, सिरिली, सिस्सिरीली, यावतिक, कन्दली, पलांडु, लशुन, कुहुव्रत, लोहिनी, हुताक्षी, हूत, कृष्ण, वज्र और सूरणकन्द तथा अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी और हरिद्रा कन्द इत्यादि अनेक प्रकार की साधारण वनस्पतियां कही गई हैं।
टीका-इन तीनों गाथाओं में साधारण वनस्पति के अन्तर्गत आने वाले अनेक प्रकार के कन्दों के नाम निर्दिष्ट किए गए हैं। उनमें कुछ तो प्रसिद्ध हैं और कुछ अप्रसिद्ध हैं। - जितने भी नाम ऊपर आ चुके हैं उन सबका विवरण-पूर्वक ज्ञान, वैद्यक-निघंटु से तथा देश-विदेश की भाषाओं द्वारा ही हो सकता है। ये सब प्रकार के कन्द और मूल अनन्तकाय कहलाते हैं। जो तोड़ने पर चक्राकार में टूटे उसे अनन्त-काय कहते हैं। अनन्तकाय का अन्यत्र यह भी लक्षण बताया गया है कि
समभागं भज्यमानस्य, ग्रन्थिश्चूर्णघनो भवेत् । पृथ्वीसदृशेन भेदेन, अनन्तकायं विजानीहि ॥ १ ॥ गूढशिराकं पत्रं, सक्षीरं यच्च भवति निःक्षीरम् ।
यद्यपि प्रणष्टसन्धिम्, अनन्तजीवं विजानीहि ॥ २ ॥ जिसका समविभाजन करने पर गोली चूर्ण एक जैसा बन सकता है जो पृथ्वी के अन्दर ही पृथ्वी का अंग बनकर विकसित होता हो उसे अनन्तकाय कहते हैं।
जिस वनस्पति के अन्दर रेशे और पत्ते न हों, जो दूध वाली भी होती है और दूधरहित भी होती है जिसमें कोई जोड़, गांठ या बीज नहीं होता उसे अनन्त जीव वनस्पति कहते हैं।
पनक अर्थात् उल्ली-के जीव भी सामान्य रूप से वनस्पतिकाय में ही परिगणित किए गए हैं। अब सूक्ष्म वनस्पति को भेद-शून्य बताते हुए साथ में वनस्पतिकाय का क्षेत्र-सापेक्ष्य
‘उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४०७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं