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पदार्थान्वयः - रत्तिं पि-रात्रि के भी, चउरो भागे - चार भाग, वियक्खणो- विचक्षण, भिक्खू - भिक्षु, कुज्जा - करे, तओ - तदनन्तर, चउसु विचारों ही, राइभाएसु - रात्रि भागों में, उत्तरगुणे - उत्तर गुणों का आराधन, कुज्जा - करे ।
मूलार्थ - बुद्धिमान् भिक्षु रात्रि के चार भागों की कल्पना करके उन चारों ही भागों में यथाक्रम उत्तरगुणों की आराधना करे ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में साधु के रात्रिकृत्यों का निर्देश किया गया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से साधु को दिन में अपने धार्मिक कृत्यों का अनुष्ठान करना पड़ता है, उसी प्रकार रात्रि में भी उसको कतिपय उत्तर गुणों के आराधन की आवश्यकता रहती है। इसलिए दिनचर्या की भांति रात्रि के भी चार विभाग करके उनमें यथाक्रम आवश्यक कृत्यों का अनुष्ठान करना साधु का परम कर्त्तव्य है ।
सारांश यह है कि जिन उत्तर गुणों के आराधनार्थ दिन को विभक्त किया गया है उन्हीं उत्तर गुणों की आराधना के लिए रात्रि के चार भागों की भी कल्पना कर लेनी चाहिए ।
अब रात्रि के चारों भागों में अनुक्रम से जो कर्त्तव्य हैं, उनका निरूपण करते हुए कहते हैं कि
पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई । तइयाए निद्दमोक्खं तु, चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ॥ १८ ॥
प्रथमपौरुष्यां स्वाध्यायं, द्वितीयायां ध्यानं ध्यायेत् ।
तृतीयायां निद्रामोक्षं तु, चतुर्थ्यां भूयोऽपि स्वाध्यायम् ॥ १८ ॥
पदार्थान्वयः - पढमं - प्रथम, पोरिसि-प्रहर में, सज्झायं- स्वाध्याय करे, बीयं- दूसरी पौरुषी में, झाणं - ध्यान का आचरण करे, तु-और, तइयाए - तीसरी पौरुषी में, तु - और, निमोक्खं - निद्रा से मुक्त होवे, भुज्जो वि- फिर भी, चउत्थी - चौथी में, सज्झायं - स्वाध्याय करे।
मूलार्थ - रात्रि की प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करे, दूसरी पौरुषी में ध्यान, तीसरी में निद्रा को मुक्त करे और चौथी में फिर स्वाध्याय करे ।
टीका - जिस प्रकार पूर्व गाथाओं में काल-विभाग से दिनचर्या का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत गाथा में समय - विभाग से रात्रिचर्या का वर्णन किया गया है। जैसे कि - रात्रि की प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय का आचरण करना चाहिए और दूसरी पौरुषी में स्वाध्याय में आये हुए क्षितिवलय द्वीप, सागर, भवनादि के स्वरूप का विचार करना चाहिए, तीसरी पौरुषी में षट् प्रहरों से जो निद्रा का निरोध किया हुआ था उसको मुक्त करना चाहिए, अर्थात् विधिपूर्वक - अनशनादि कृत्य करके आगारों के साथ-शयन करना चाहिए और चौथी पौरुषी में उठकर फिर स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाना चाहिए।
यह सब कथन उत्सर्ग-विधि में है। अपवाद-मार्ग में तो जैसे गुरुजनों की आज्ञा हो, उसी प्रकार से आचरण करना साधु का कर्त्तव्य है ।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३२] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं