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सूत्रकार ने बारह महीनों के चार विभाग कर दिए हैं, जोकि प्रथम त्रिक, द्वितीय त्रिक, तृतीय त्रिक और चतुर्थ त्रिक के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक त्रिक में तीन-तीन मासों का समावेश किया गया है। प्रथम त्रिक में ज्येष्ठ, आषाढ़ और श्रावण ये तीन मास परिगणित किए गए हैं, द्वितीय त्रिक में भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक ये तीन मास हैं, तीसरे त्रिक में मार्गशीर्ष, पौष और माघ तथा चौथे त्रिक में फाल्गुन, चैत्र और वैशाख इन मासों का ग्रहण अभीष्ट है।
प्रथम पौरुषी के प्रमाण में यावन्मात्र अंगुलियों के प्रमाण का कथन किया गया है, उस प्रमाण से यदि छः अंगुल छाया अधिक बढ़े तब पादोन पौरुषी का समय हो जाता है। इसी प्रकार दूसरे त्रिक में जो पौरुषी के प्रमाण की छाया है उससे यदि आठ अंगुल छाया बढ़ जाए, तब पादोन पौरुषी का समय हो जाता है तथा तीसरे त्रिक में पौरुषी के प्रमाण की छाया से यदि दस अंगुल प्रमाण छाया अधिक बढ़े तब पादोन पौरुषी का समय होता है और चौथे त्रिक में आठ अंगुल छाया अधिक बढ़े, तब पादोन पौरुषी होती है। यही समय पात्रादि के प्रतिलेखन का बताया गया है।
ज्येष्ठा और मूल इन दो नक्षत्रों का नाम निर्देश इसलिए किया गया है कि उक्त मास में इनका परस्पर बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। इस प्रकार यह पादोन पौरुषी के काल-ज्ञान का शास्त्रकार ने वर्णन किया है। बृहद्वृत्तिकार ने सुगमता के लिए इसका यंत्र भी दे दिया है, जो कि इस प्रकार है
फाल्गुने पदे
ज्येष्ठे पदे- भाद्रपदे
२-४-६ __.२-८ अंगु.-२-१० : अंगु. ८-३-४ आषाढ़े पदे-२ आश्विन पदे-३ अंगु. ६-२-६ . अंगु. ८-३-८ श्रावण पदे-२-४ | कार्तिक पदे-३-४ | अंगु. ६-२-१० | अंगु. ८-४ ।
मार्गशीर्षे पदे
३-८ अंगु. १०-४-६
पौषे पदे-४ अंगु. १०-४-१० माघे पदे-३-८ अंगु. १०-४-६
३-४ अंगु. ८-४
चैत्रे पदे-३
अंगु. ८-३-८ | वैशाखे पदे-२-८ | अंगु. ८-३-४
यह सब पादोन पौरुषी के जानने व देखने की विधि का वर्णन किया गया है, प्रतिलेखना-सम्बन्धी विषय का वर्णन कुछ तो पीछे आ चुका है और कुछ आगे वर्णन किया जाएगा। इस प्रकार दिनकृत्य के वर्णन करने के अनन्तर अब रात्रिकृत्य का वर्णन करते हैं -
रत्तिं पि चउरो भागे, भिक्खू कुज्जा वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा, राइभाएसु चउसु वि ॥ १७ ॥
रात्रावपि चतुरो भागान्, भिक्षः कुर्याद् विचक्षणः । तत उत्तरगुणान्कुर्यात्, रात्रिभागेषु चतुर्ध्वपि ॥ १७ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३१] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं