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भेदों का वर्णन करते हैंपुढवी आउजीवा य, तहेव य वणस्सई । इच्चेए थावरा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ ६९ ॥ तथैव च वनस्पतिः । एत्येते स्थावरास्त्रिविधा:, तेषां भेदान् श्रृणुत मे ॥ ६९ ॥
पृथिव्यब्जीवाश्च,
पदार्थान्वयः - पुढवी - पृथिवीरूप, य-और, आउजीवा - जल रूप जीव, तहेव - उसी प्रकार, वणस्सई-वनस्पतिरूप जीव, इच्चेए- इस प्रकार से ये तिविहा- तीन प्रकार के, थावरा - स्थावर हैं, तेसिं-इनके, भेए-भेदों को, मे-मुझ से, सुणेह - तुम सुनो।
अब उक्त कथन के अनुसार स्थावर के
मूलार्थ - पृथिवीरूप जीव, जलरूप जीव और वनस्पतिरूप जीव, इस प्रकार ये तीन भेद स्थावर के वर्णन किए गए हैं, सो अब इनके भेदों को तुम मुझसे श्रवण करो।
टीका- आचार्य कहते हैं कि स्थावर के तीन भेद कहे गए हैं- पृथिवी, जल और वनस्पति, अर्थात् पृथिवीरूप जीव, जलरूप जीव और वनस्पतिरूप जीव । ये तीनों एक-इन्द्रिय-रूप जीव हैं, एवं जीव और शरीर के परस्पर अनुगत होने तथा विभाग के न होने से इस प्रकार कहा गया है। तात्पर्य यह है कि उक्त तीनों में पिण्डों के समूह का नाम जीव है, न कि उन पृथिवी आदि के काठिन्यादि को जीव कहते हैं। कारण यह है कि जीव का उपयोग लक्षण है, सो वहां वे आत्माएं भी सूक्ष्म उपयोग से युक्त हैं तथा स्थिति-प्रधान होने से इनको स्थावर कहते हैं।
अब पृथिवीरूप स्थावर जीव के भेदों का वर्णन करते हैं, यथादुविहा पुढवीजीवा य, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ ७० ॥
द्विविधाः पृथिवीजीवाश्च, सूक्ष्मा बादरास्तथा । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेव द्विधा पुनः ॥ ७० ॥
पदार्थान्वयः- दुविहा- दो प्रकार के, पुढवीजीवा - पृथ्वीकाय के जीव हैं, सुहुमा - सूक्ष्म, तहा - तथा, बायरा-बादर, य-पुनः, प्रज्जत्तं - पर्याप्त - और, अपज्जत्ता - अपर्याप्त, एवमेव- उसी प्रकार, पुणो-फिर, दुहा- दो प्रकार के हैं।
मूलार्थ - पृथिवीकाय के जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर, फिर इसी प्रकार इन दो में से प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद जानने चाहिएं।
टीका - पृथिवीकाय के जीवों के दो भेद हैं- सूक्ष्म और बादर; अर्थात् सूक्ष्म नाम-कर्म के उदय से सूक्ष्म पृथिवीकाय और बादर नाम-कर्म के उदय से बादर पृथिवीकाय ये दो भेद हैं। फिर सूक्ष्म और बादर के भी दो भेद हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । यथासम्भव पर्याप्ति वालों को पर्याप्त कहते हैं। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, मन और वचन ये छह पर्याप्तियां कही जाती हैं तथा जिन्होंने पर्याप्तियां पूर्ण कर ली हों वे पर्याप्त और बिना पर्याप्ति के जो जीव हैं उनको अपर्याप्त कहा जाता है। सो पृथिवी, जल और वनस्पति काय में चार पर्याप्तियां हैं- आहार -पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति, इन्द्रिय-पर्याप्ति और
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३९३] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं