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अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया । अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ॥ ६६ ॥
अरूपिणो जीवघनाः, ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः । - अतुलं सुखं सम्प्राप्ताः, उपमा यस्य नास्ति तु ॥ ६६ ॥ पदार्थान्वयः-अरूविणो-अरूपी, जीवघणा-घनरूप जीव, नाण-ज्ञान, दंसण-दर्शन, सन्निया-संज्ञा वाले-ज्ञान-दर्शन के उपयोग सहित, अउलं-अतुल, सुह-सुख को, संपत्ता-सम्यक् प्राप्त हुए, जस्स-जिस सुख की, उवमा-उपमा, नत्थि-नहीं है, उ-प्राग्वत्। ____मूलार्थ-वे सिद्ध जीव रूप से रहित घनरूप और ज्ञान-दर्शन के उपयोग वाले उस अतुल सुख को प्राप्त होते हैं जिसकी कोई उपमा नहीं है।
टीका-सिद्धात्मा रूपादि से रहित होते हैं तथा शरीर-सम्बन्धी विवरों अर्थात् छिद्रों के दूर हो जाने से वे परम पवित्रात्मा, प्रदेशों के घनरूप हो जाने से जीवघन कहे जाते हैं और ज्ञान-दर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं। इसके अतिरिक्त उनका जो आत्म-सुख है वह अक्षय और तुलना से रहित है, अर्थात् सिद्धों के सुख की संसार के किसी भी सुख से तुलना नहीं की जा सकती। कारण यह है कि वेदनीय-कर्मजन्य जो सुख है वह नाशवान् और तारतम्य से युक्त होता है, अत: उसका विपाक भी शुभ नहीं होता, परन्तु जो आत्मिक सुख है वह अजन्य होने से अविनाशी और. सदा एकरस रहने वाला है, इसीलिए उसकी संसार में कोई उपमा उपलब्ध नहीं होती। जैसे सूर्य के प्रकाश के समक्ष जुगनू का प्रकाश अत्यन्त तुच्छ और क्षणिक होता है, सूर्य के समक्ष उसकी कोई गणना नहीं होती, इसी तरह आत्मिक सुख की अपेक्षा वेदनीय-कर्मजन्य सुख अत्यन्त क्षुद्र और नहीं के बराबर है तथा. सिद्धों में जो ज्ञान और दर्शन का उपयोग बताया गया है उससे जो वादी मोक्ष में ज्ञान का अभाव मानते हैं उनके मत का निराकरण करना अभिमत है और जीव-घन से अभावरूप मोक्ष का खण्डन किया गया है एवं सुख का निर्वचन करने से केवल दु:ख-ध्वंसरूप मोक्ष का निषेध किया है।
सारांश यह है कि जो सुख अर्थात् आनन्द ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रयी की उपासना से प्राप्त होने वाली आत्मोपलब्धि में है वह आनन्द तो क्या, उसका शतांश या सहस्रांश भी संसार के रम्य से भी रम्य पदार्थों के सेवन से प्राप्त नहीं हो सकता। जैसे कि एक विद्यार्थी को परीक्षा में उत्तीर्ण होने से जिस आनंद का अनुभव होता है वैसा आनन्द परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए विद्यार्थी को सुंदर पदार्थों के भक्षण से कभी प्राप्त नहीं हो सकता। अतः आध्यात्मिक सुख के समक्ष वैषयिक सुख की कोई भी गणना नहीं है।
इस प्रकार भाव से सिद्धों के स्वरूप का वर्णन करने के अनन्तर अब उनके क्षेत्र-सापेक्ष्य-स्वरूप का वर्णन करते हुए शास्त्रकार फिर कहते हैं कि -
लोगेगदेसे ते सव्वे, नाणदंसणसंनिया । संसारपारनित्थिण्णा, सिद्धिं वरगई गया ॥ ६७ ॥
लोकैकदेशे ते सर्वे, ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः । संसारपारनिस्तीर्णाः, सिद्धिं वरगतिं गताः ॥ ६७ ॥
* उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३९१] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं