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अर्थात् न तो इनका आदि है और न अन्त ही। स्थिति और रूपान्तर होने की अपेक्षा से ये सादि-सान्त हैं, अर्थात् इनका आरम्भ भी है और समाप्ति भी। जैसे कि किसी समय पर परमाणुओं के संघात से स्कन्ध की उत्पत्ति हुई और उसके बाद उसकी स्थिति पर विचार किया गया, तब इस अपेक्षा से वह सादि और सान्त प्रतीत होता है। यदि दूसरे सरल शब्दों में कहें तो ये स्कन्धादि किसी दृष्टि से अनादि-अनन्त हैं और किसी अपेक्षा से सादि-सान्त कहे जाते हैं। अब इनकी स्थिति के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा
असंखकालमक्कोसं, इक्कं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूवीणं, ठिई एसा वियाहिया ॥ १३ ॥ असङ्ख्यकालमुत्कृष्टा, एक समयं जघन्यका ।
अजीवानाञ्च रूपिणां, स्थितिरेषा व्याख्याता ॥ १३ ॥ पदार्थान्वयः-असंखकालं-असंख्यातकाल की, उक्कोसं-उत्कृष्ट और, जहन्नयं-जघन्य, इक्कं समयं-एक समय-प्रमाण, एसा-यह, ठिई-स्थिति, रूवीणं-रूपी, अजीवाण-अजीव-द्रव्यों की, वियाहिया-प्रतिपादन की गई है, य-पादपूर्ति के लिए है।
मूलार्थ-रूपी अजीव-द्रव्य की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल की और जघन्य एक समय की कही गई है।
___टीका-स्कन्ध और परमाणु को काल-सापेक्ष्य स्थिति से सादि-सान्त माना गया है, इसलिए प्रस्तुत गाथा में परमाणु की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया गया है। परमाणु और स्कन्ध की जघन्य स्थिति तो एक समय की है और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल की प्रतिपादित की गई है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि परमाणु या स्कन्ध किसी एक विवक्षित स्थान पर स्थिति करें तो उनका वह स्थिति-काल न्यून से न्यून एक समय का और अधिक से अधिक असंख्यात काल का होता है। इसके अनन्तर उनको किसी न किसी निमित्त को पाकर वहां से अवश्य अलग होना पड़ता है। फिर उनकी दूसरी स्थिति चाहे उसी क्षेत्र में हो अथवा किसी क्षेत्रान्तर में हो।
इस प्रकार स्कन्ध और परमाणु की कालसापेक्ष्य स्थिति का वर्णन किया गया है, अब इसी के अन्तर्गत अन्तर-द्वार अर्थात् पुद्गल के अन्तर-स्थिति-द्वार का वर्णन करते हैं, यथा
अणंतकालमुक्कोसं, इक्कं समयं . जहन्नयं । . अजीवाण य रूवीणं, अंतरेयं वियाहियं ॥ १४ ॥
अनन्तकालमुत्कृष्टम्, एकं समयं जघन्यकम् ।
अजीवानाञ्च रूपिणाम्, अन्तरमिदं व्याख्यातम् ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः-उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल, जहन्नयं-जघन्य, इक्क-एक, समय-समय, रूवीणं-रूपी-मूर्त, अजीवाण-अजीव-द्रव्य का, अंतरेयं-यह अन्तर, वियाहियं-तीर्थंकरों ने कहा है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३६५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं