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क्षेत्र की अपेक्षा से स्कन्ध और परमाणु की स्थिति का विचार करें तो लोक के एक प्रदेश से लेकर असंख्यात प्रदेशों पर्यन्त स्कन्ध और परमाणु के विषय में भजना है, अर्थात् लोक के एक आकाशप्रदेश पर एक परमाणु तो रहता ही है, परन्तु स्कन्ध के लिए कोई नियम नहीं है, वह स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश पर रहता भी है और नहीं भी रहता। कारण यह है कि स्कन्ध एक प्रदेश पर भी रहता है और दो पर भी रह सकता है, तथा संख्यात और असंख्यात प्रदेशों पर भी उसकी स्थिति हो सकती है, अथवा सर्व लोक में भी वह स्थिति कर सकता है।
इस प्रकार स्कन्ध और परमाणु का द्रव्य से लक्षण और क्षेत्र से स्थिति का वर्णन करने के अनन्तर अब काल की अपेक्षा से उनके चार भेद वर्णन करने की शास्त्रकार प्रतिज्ञा करते हैं, जैसा कि ऊपर गाथा के अर्धांश में बतलाया गया है।
यह गाथा षट्पाद गाथा के नाम से प्रसिद्ध है, अर्थात् इसके छ: पाद हैं। गाथा का लक्षण बतलाते हुए अन्यत्र लिखा है कि
विषमाक्षरपादं वा पादैरसमं दशधर्मवत् ।
तंत्रेऽस्मिन् पदसिद्धं गाथेति तत्पण्डितै यम् ॥ इसका अर्थ सुगम है। दश प्रकार के जीव धर्म का आराधन नहीं कर सकते। यथा
मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः, श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ।
त्वरमाणश्च भीरुश्च, लुब्धः कामी च ते दश ॥ नशे में चूर, पागल, भूतप्रेतादि की बाधा से युक्त, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दी मचाने वाला, डरपोक, लोभी और कामी, ये दस व्यक्ति धर्म की आराधना नहीं कर सकते हैं। ___अब प्रतिज्ञात विषय, अर्थात् काल की अपेक्षा से स्कन्ध और परमाणु के चार भेदों का निरूपण करते हैं, यथा
संतई पप्प तेऽणाई, अपज्जवसिया वि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य ॥ १२ ॥
सन्ततिं प्राप्य तेऽनादयः, अपर्यवसिता अपि च ।
स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-संतइं-संतति की, पप्प-अपेक्षा से, ते-वे-स्कन्धादि, अणाई-अनादि हैं, य-और, अपज्जवसिया-अपर्यवसित हैं, किन्तु, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च-अपेक्षा से, साईया-सादि और, सपज्जवसिया-सपर्यवसित अर्थात् पर्यवसान वाले हैं।
मूलार्थ-स्कन्ध और परमाणु सन्तति-परम्परा अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और अपर्यवसित अर्थात् अनन्त हैं, परन्तु स्थिति की अपेक्षा से वे सादि और सपर्यवसान अर्थात् अन्त वाले हैं।
टीका-स्कन्ध और परमाणुओं की सन्तति अर्थात् परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है और इसी प्रकार चलती ही रहेगी, इसलिए प्रवाह की अपेक्षा से परमाणु अनादि और अनन्त कहे जाते हैं,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३६४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं