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अह जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
- अथ जीवाजीवविभक्तिनाम षट्त्रिंशत्तममध्ययनम्
गत पैंतीसवें अध्ययन में साधु के गुणों का कथन किया गया है, परन्तु उनके पालनार्थ जीव और अजीव आदि पदार्थों का भली-भांति ज्ञान होना परम आवश्यक है, अतः इस वक्ष्यमाण छत्तीसवें अध्ययन में जीव और अजीव के स्वरूप का वर्णन किया जाता है और इसीलिए यह अध्ययन भी 'जीवाजीव-विभक्ति' के नाम से प्रसिद्ध है। .. .. प्रस्तुत अध्ययन की आरम्भिक गाथा इस प्रकार है
.. जीवाजीवविभत्तिं मे, सुणेह एगमणा इओ ।
जं जाणिऊण भिक्खू, सम्मं जयइ संजमे ॥ १ ॥ . जीवाजीवविभक्तिं मे, श्रृणत ! एकमनस इतः । .. . यां ज्ञात्वा भिक्षुः, सम्यग् यतते संयमे ॥ १ ॥
पदार्थान्वयः-जीवाजीवविभत्ति-जीव और अजीव की विभक्ति, मे-मुझसे, एगमणा-एकमन होकर, सुणेह-श्रवण करो! इओ-इससे, जं-जिसको, जाणिऊण-जानकर, भिक्खू-भिक्षु, सम्म-भली प्रकार से, संजमे-संयम में, जयइ-यत्नवान् होता है। ___ मूलार्थ-हे शिष्यो ! तुम मुझ से एकाग्रमन होकर जीवाजीव की विभक्ति अर्थात् विभाग को श्रवण करो, जिसको जानकर भिक्षु संयम की दृढ़ता के लिए यत्न करता है।
टीका-आचार्य कहते हैं कि हे शिष्यो ! अब तुम जीव और अजीव के भेदों को मुझसे सुनो, क्योंकि संयम की आराधना एवं दृढ़ता के लिए इनके स्वरूप और भेदों का जानना नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत गाथा में प्रतिपाद्य विषय का निर्देश और उसके फल का संक्षेप से दिग्दर्शन कराया गया है।
अब उद्देश्यक्रमानुसार प्रतिज्ञात विषय का उपक्रम करते हैं, यथा
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं