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अर्थात् सदा के लिए, परिणिव्युए-सुखी हो जाता है।
मूलार्थ-(ऐसा साधक) ममत्व और अहंकार से रहित, वीतराग, तथा आस्रवों से रहित होकर केवल-ज्ञान को प्राप्त करके सदा के लिए सुखी हो जाता है।
टीका-अनगार-वृत्ति के यथावत् पालन करने का फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जो मुनि ममत्व और अहंकार से रहित तथा आस्रवों से मुक्त और वीतराग अर्थात् राग-द्वेष से रहित हो गया है, वह केवलज्ञान को प्राप्त करके शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष के सुख को प्राप्त कर लेता है। .
प्रस्तुत गाथा में मोक्ष के अन्तरंग साधन और उसके स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है। मुमुक्षु जीव को सबसे प्रथम ममत्व और अहंकार का त्याग करना पड़ता है, उससे यह जीव अनास्रवी हो जाता है, अर्थात् पुण्य-पापरूप कर्मास्रवों को रोक देता है। उसका फल वीतरागता की प्राप्ति है और वीतराग अर्थात् राग-द्वेष से रहित को फिर केवल-ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तथा केवल-ज्ञान को प्राप्त करने वाली आत्मा सर्व प्रकार के कर्म बन्धनों से मुक्त होकर शाश्वत निर्वृत्ति को अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त कर लेती है। ___मुक्ति को शाश्वत और सुखरूप बताने से उसकी नित्यता और परमानन्दस्वरूपता का बोध कराया गया है, इसलिए जो लोग मोक्ष-सुख को सावधिक अर्थात् अवधि वाला और दु:खाभावरूप मानते हैं, उनका विचार शास्त्र-सम्मत और युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता।
"त्ति बेमि" का अर्थ पहले की तरह ही समझ लेना चाहिए। इस प्रकार यह अनगार नामक अध्ययन पूर्ण हुआ।
पञ्चत्रिंशत्तममध्ययनं संपूर्णम्
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५६] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं