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उत्तरगुणों की आराधना करे। - टीका-अब ओघ सामाचारी के प्रस्ताव में दिनचर्या का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि-विद्वान् साधु अपनी बुद्धि से दिन के चार विभाग कर लेवे, उन चारों ही विभागों में स्वाध्याय आदि उत्तम गुणों का आराधन करे, अर्थात् जिस-जिस विभाग में जिन-जिन गुणों का अनुष्ठान विहित हो उन सभी का आचरण करे।
यहां पर इतना स्मरण रहे कि दिन के विभाग की कल्पना का तात्पर्य यह है कि दक्षिणायन और उत्तरायण में दिन की न्यूनाधिकता होती रहती है, अतः उसके अनुसार ही विभाग में न्यूनाधिकता कर लेनी चाहिए। जैसे कि-बत्तीस घड़ी के दिन-मान में आठ घड़ी का चतुर्थ भाग होगा और अट्ठाईस घड़ी के दिन-मान में सात घड़ी का चतुर्थांश होगा।
अब निम्नलिखित गाथाओं में विभागानुसार गुणों के धारण करने के विषय का उल्लेख करते हैं कि
पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई। तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥ १२ ॥
प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं, द्वितीयायां ध्यानं ध्यायेत् ।
तृतीयायां भिक्षाचर्या, पुनश्चतुर्थ्यां स्वाध्यायम् ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-पढम-प्रथम, पोरिसि-पौरुषी में, सज्झायं-स्वाध्याय करे, बीयं-दूसरी पौरुषी में, झाणं-ध्यान करे, झियायई-ध्यावे-करे, तइयाए-तीसरी में, भिक्खायरियं-भिक्षाचरी करे, पुणो-फिर, चउत्थीइ-चौथी पौरुषी में, सज्झायं-स्वाध्याय करे।।
मूलार्थ-प्रथम प्रहर (पौरुषी) में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचरी और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय करे।
टीका-प्रस्तुत गाथा में साधु की दिनचर्या का वर्णन किया गया है, जैसे कि प्रथम पौरुषी-प्रथम प्रहर में पांचों प्रकार का स्वाध्याय करे, दूसरी पौरुषी में स्वाध्याय किये हुए पदार्थ का चिन्तन अथवा आत्म-ध्यान करे, तीसरी पौरुषी में भिक्षा को जाए और चौथी में फिर स्वाध्याय करे।
समय का यह विभाग सामान्य अथवा स्थूल दृष्टि से किया गया है और विशेष रूप से तो प्रतिलेखना आदि का समय भी इसी प्रथम पौरुषी में ही ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार तीसरी पौरुषी में उच्चार-भूमि में जाना आदि क्रियायें भी गृहीत हैं तथा अपवाद-मार्ग में भी वह समय व्यवस्थित नहीं रहेगा-जैसे कि रोगी व वृद्ध साधु की सेवा-सुश्रूषा में प्रवृत्त होने से समय की व्यवस्था नहीं रह सकती। तथा चतुर्थ पौरुषी में भी स्वाध्याय के अतिरिक्त स्थंडिल, प्रतिलेखना और वृद्ध-ग्लानादि के लिए आहारादि लाना आदि कार्यों का समावेश कर लेना चाहिये।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२७] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं