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________________ तथैव भक्तपानेषु, पचने पाचनेषु च । प्राणभूतदयार्थं, न पचेन्न पाचयेत् ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः-तहेव-उसी प्रकार, भत्तपाणेसु-भक्तपान के विषय में जानना, पयणे-पचन में अर्थात् पकाने में, य-और, पयावणेसु-पाचन में अर्थात् पकवाने में, पाणभूय-प्राणियों की, दयट्ठाए-दया के वास्ते, न पए-न पकावे, न-न ही, पयावए-दूसरों से पकवावे। मूलार्थ-उसी प्रकार अन्न-पानी बनाने अर्थात् पकाने और बनवाने अर्थात् पकवाने में भी त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है, अतः प्राणियों पर दया करने के लिए संयमशील साधु न तो स्वयं अन्न को पकाए और न ही दूसरों से पकवाए। टीका-गृहनिर्माण की भांति संयमी साधु के लिए स्वयं आहार-पानी के तैयार करने का भी निषेध किया गया है, क्योंकि अन्नादि के तैयार करने-पकाने और पकवाने में भी जीवों की हिंसा अवश्यंभावी है, अतः विचारशील यति पाकादि की क्रिया से भी पृथक् रहे। अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जल-धन्ननिस्सिया जीवा, पुढवी-कट्ठनिस्सिया । - हम्मति भत्त-पाणेसु, तम्हा भिक्खू न पयावए ॥ ११ ॥ जल-धान्यनिश्रिता जीवाः, पृथिवी-काष्ठनिश्रिताः । हन्यन्ते भक्त-पानेषु, तस्माद् भिक्षुर्न पाचयेत् ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः-जलधन्न-जल और धान्य के, निस्सिया-आश्रित, जीवा-अनेक जीव, तथा, पुढवी कट्ठ-पृथिवी और काष्ठ के, निस्सिया-आश्रित अनेक जीव, हम्मंति-हने जाते हैं, तम्हा-इसलिए, भिक्खू-भिक्षु, न पयावए-न पकवाए। मूलार्थ-अन्न के पकाने और पकवाने में जल और धान्य के आश्रित तथा पृथिवी और काष्ठ के आश्रित अनेक जीवों की हिंसा होती है, इसलिए भिक्षु अन्नादि को न स्वयं पकाए और न पकवाए। . टीका-जिस प्रकार उपाश्रय आदि के निर्माण में त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है और इसी कारण से भिक्षु उससे अलग रहता है, ठीक उसी प्रकार अन्नादि के निर्माण करने या करवाने में भी जल, धान्य, पृथिवी और काष्ठ के आश्रय में रहने वाले अनेकविध जीवों की हिंसा होती है, इसलिए भिक्षु को रसोई आदि के बनाने या दूसरों से बनवाने का भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए। यहां पर जो जल, धान्य, पृथिवी और काष्ठ आदि के आश्रित जीवों का उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि बहुत से जीव तो अन्य स्थानों में उत्पन्न होकर जलादि का आश्रय लेते हैं और कुछ जीव ऐसे भी हैं जो जल और पृथिवी आदि में उत्पन्न होकर उनका स्वरूपभूत होकर रहते हैं, एतदर्थ ही भिक्षु के लिए पाकादि-क्रिया का निषेध किया गया है एवं उपलक्षण से पकाने की अनुमति देने का भी निषेध समझ लेना चाहिए। अब अग्नि के जलाने का निषेध करते हैं, यथा उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३४९] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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