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________________ से, कारए-बनवाए, गिहकम्म-गृहकर्म के, समारंभे-समारम्भ में, भूयाणं-भूतों-जीवों का, वहो-वध, दिस्सए-देखा जाता है। __ मूलार्थ-(भिक्षु) स्वयं घर न बनाए और न ही दूसरों से बनवाए (उपलक्षण से अनुमोदना भी न करे), क्योंकि गृह-कार्य के समारम्भ में अनेक जीवों की हिंसा होती देखी जाती है। टीका-शास्त्रकारों ने संयमशील साधु के लिए हर प्रकार की सावध प्रवृत्ति का निषेध किया है। इतना ही नहीं, किन्तु सावध कर्म के लिए प्रेरणा और अनुमोदना करने का भी उसे अधिकार नहीं, अतः संयमशील भिक्षु उपाश्रय आदि निवास-गृहों का न तो स्वयं निर्माण करे और न अन्य गृहस्थों के द्वारा निर्माण कराए तथा इस विषय का अनुमोदन भी न करे, क्योंकि इस प्रकार के समारम्भ-कर्म में अनेक जीवों का वध होता है। ___तात्पर्य यह है कि गृह-कर्म समारम्भ का मूल है और उस समारम्भ में अनेकानेक जीवों का वध होना भी अनिवार्य है, इसलिए त्यागशील साधु इस प्रकार के कार्य को न तो स्वयं करे और न दूसरों से कराए तथा उसकी अनुमोदना भी न करे। इसी आशय से संयमशील साधु को परकृत एकान्त स्थानों में रहने का आदेश दिया गया है। गृह-निर्माण में जिन-जिन जीवों की हिंसा होती है, अब उनका उल्लेख करते हुए गृहारम्भ के परित्याग का फिर उपदेश करते हैं, यथा तसाणं थावराणं च, सुहुमाणं बादराण य । तम्हा गिहसमारंभं, संजओ परिवज्जए ॥ ९ ॥ त्रसानां स्थावराणां च, सूक्ष्माणां बादराणां च । तस्माद् गृहसमारम्भं, संयतः परिवर्जयेत् ॥ ९ ॥ पदार्थान्वयः-तसाणं-त्रस जीवों का, थावराणं-स्थावर जीवों का, च-और, सुहमाणं-सूक्ष्म जीवों का, य-और, बादराण-बादर अर्थात् स्थूल जीवों का वध होता है, तम्हा-इसलिए, गिहसमारंभ-गृह के समारम्भ को, संजओ-संयमी पुरुष, परिवज्जए-त्याग दे। . ___ मूलार्थ-गृह के समारम्भ में त्रस, स्थावर, सूक्ष्म तथा बादर जीवों की हिंसा होती है, इसलिए संयमशील साधु गृह के समारम्भ को सर्व प्रकार से त्याग दे। टीका-दो इन्द्रियों से लेकर पांच इन्द्रियों वाले जीव त्रस कहलाते हैं तथा पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति काय के जीवों की स्थावर संज्ञा है एवं सूक्ष्म नाम-कर्म के उदय से सूक्ष्म शरीर को धारण करने वाले जीव और बादर नाम-कर्म के उदय से स्थूल शरीर को धारण करने वाले जीव-इन सब प्रकार के जीवों की हिंसा गृहकर्म के समारम्भ में दृष्टिगोचर होती है, इसलिए संयमशील यति को अपने अहिंसादि व्रतों की रक्षा के लिए इस प्रकार की सावध प्रवृत्ति का सर्व प्रकार से परित्याग कर देना चाहिए। अब आहार-विषयक सावध प्रवृत्ति के त्याग का उपदेश देते हुए फिर कहते हैं तहेव भत्त-पाणेसु, पयणे पयावणेसु य । पाणभूयदयट्ठाए, न पए न पयावए ॥ १० ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३४८] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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