________________
अह लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
अथ लेश्याध्ययनं नाम चतुस्त्रिंशत्तममध्ययनम् ..
पूर्वोक्त कर्म-प्रकृति नामक अध्ययन में कर्मों की मूल तथा उत्तर प्रकृतियों का संक्षेप से वर्णन किया गया है, परन्तु कर्मों की स्थिति आदि का विशेष आधार लेश्याओं पर निर्भर है, इसलिए इस चौंतीसवें अध्ययन में लेश्याओं का वर्णन किया जाता है। यथा- ..
लेसज्झयणं पवक्खामि, आणुपुव्विं जहक्कम । छण्हं पि कम्मलेसाणं, अणुभावे सुणेह मे ॥ १ ॥
लेश्याध्ययनं प्रवक्ष्यामि, आनुपूर्व्या यथाक्रमम् ।
षण्णामपि कर्मलेश्यानाम्, अनुभावान् शृणुत मम ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः-लेसज्झयणं-लेश्या-अध्ययन को, पवक्खामि-मैं कहूंगा, आणुपुव्विं-आनुपूर्वी और, जहक्कम-यथाक्रम से, छण्हं पि-छओं ही, कम्मलेसाणं-कर्म-लेश्याओं के, अणुभावे-अनुभावों को, मे-मुझ से, सुणेह-श्रवण करो। ____ मूलार्थ-मैं आनुपूर्वी और यथाक्रम से लेश्या-अध्ययन को कहूंगा। तुम छहों कर्मलेश्याओं के अनुभावों अर्थात् रसों को मुझसे श्रवण करो। ___टीका-श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि अब तुम मुझसे छः प्रकार की लेश्याओं के स्वरूप को सुनो! मैं अनुक्रम से इस लेश्या नामक अध्ययन में उनकी व्याख्या करूंगा। यह कहकर शास्त्रकार ने प्रस्तुत गाथा में प्रतिपाद्य विषय की प्रतिज्ञा और पूर्व विषय के साथ उत्तर विषय का सम्बन्ध बता दिया है। ___ अनुभाव का अर्थ यहां पर रसविशेष है, अर्थात् कारणवशात् आत्म-प्रदेशों के साथ संबद्ध होने
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३०८] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं