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________________ एक - एक समय में सब जीवों द्वारा ग्रहण किए जाने पर सब जीवों से अनन्तगुणा अधिक होते हैं। इस प्रकार प्रकृति के दिखलाने पर प्रकृति-बन्ध, प्रदेशाग्र के कहने से प्रदेश बन्ध, काल के कहने स्थिति-बन्ध और अनुभाग के वर्णन से रस-बन्ध, इस तरह प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और रस, इन चारों काही संक्षेप से वर्णन कर दिया गया है। - अब प्रस्तुत अध्ययन का उपदेश के व्याज से उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैंतम्हा एएसिं कम्माणं, अणुभागे वियाणिया । एएसिं संवरे चेव, खवणे य जए बुहो ॥ २५ ॥ त्ति बेमि । इति कम्मप्पयडी समत्ता ॥ ३३ ॥ तस्मादेतेषां कर्मणाम्, अनुभागान् विज्ञाय । एतेषां संवरे चैव, क्षपणे च यतेत् बुधः ॥ २५ ॥ इति ब्रवीमि । इति कर्मप्रकृतिः समाप्ता ॥ ३३ ॥ पदार्थान्वयः- तम्हा - इसलिए, एएसिं-इन, कम्माणं- कर्मों के, अणुभागा - अनुभाग को, वियाणिया- जानकर, एएसिं-इनके, संवरे-संवर में निरोध में, च- और, खवणे-क्षय करने में, हो - तत्त्व को जानने वाला, जए-यत्न करे, च- समुच्चय में है, एव - निश्चय में है, त्ति बेमि- इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ - इसलिए इन कर्मों के विपाक को जानकर बुद्धिमान् जीव इनके निरोध और क्षय करने का यत्न करे । टीका-तत्त्व के जानने वाले विचारशील मुनि को चाहिए कि वह इन कर्मों के अशुभ और कटु परिणाम को जानकर जिन मार्गों के द्वारा ये कर्माणु आ रहे हैं, उनका तो निरोध करे और बांधे हुए कर्मों की निर्जरा करने का यत्न करे। इस प्रकार करने से जीव के लिए कर्मरहित होकर मोक्ष की प्राप्ति अवश्यम्भावी हो जाती है। इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जम्बूस्वामी से उक्त विषय का प्रतिपादन किया है। यह कर्म - प्रकृति नाम का तेंतीसवां अध्ययन समाप्त हुआ। त्रयस्त्रिंशत्तममध्ययनं संपूर्णम् उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३०७] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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