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को चाटने के समान है और खड्गधारा से जीभ कटने के समान असातावेदनीय कर्म हैं। जिस कर्म के प्रभाव से इस जीवात्मा को विषयसम्बन्धी सुखों की अनुभूति होती है उसे सातावेदनीय कर्म कहते हैं तथा जिस कर्म के उदय से इस आत्मा को इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से दुःख का अनुभव करना पड़ता ' है वह असातावेदनीय कर्म है। इसके अतिरिक्त यहां पर इतना और भी स्मरण रहे कि इस जीवात्मा को जो अपने स्वरूप के सुख की अनुभूति होती है वह किसी भी कर्म का फल नहीं है, किन्तु यह उसका निजी स्वरूप है जिसका पूर्ण विकास कर्मों के आत्यन्तिक क्षय पर अवलम्बित है। सातावेदनीय और असातावेदनीय के भी अनेक भेद हैं जिनका यहां पर विस्तार के भय से उल्लेख नहीं किया गया। हां, इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि जो आत्मा प्रत्येक प्राणधारी पर दया का भाव रखती है, वह सातावेदनीय कर्म को बांधती है और इसके विपरीत जो नाना प्रकार से उनको पीड़ा देने का यत्न करती है, वह असातावेदनीय का बन्ध करती है।
अब चौथे मोहनीय कर्म के विषय में कहते हैं, यथामोहणिज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं वृत्तं, चरणे दुविहं भवे ॥ ८ ॥ मोहनीयमपि द्विविधं, दर्शने चरणे तथा । दर्शने त्रिविधमुक्तं, चरणे द्विविधं भवेत् ॥ ८ ॥
पदार्थान्वयः - मोहणिज्जं पि- मोहनीय भी, दुविहं - दो प्रकार का है, दंसणे - दर्शन में, तहा - तथा, चरणे - चारित्र में, दंसणे - दर्शन में, तिविहं - तीन प्रकार का, वृत्तं - कहा है, चरणे - चरणविषयक, दुविहं - दो प्रकार का, भवे - होता है।
मूलार्थ - मोहनीय कर्म भी दो प्रकार का कहा गया है, जैसे कि दर्शन में और चारित्र में अर्थात् दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। इनमें दर्शनमोहनीय के तीन भेद कहे गए हैं और चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है।
टीका-जो कर्म आत्मा के स्व- पर विवेक में बाधा पहुंचाता है, अथवा जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र - गुण का घात करता है उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। यह कर्म भी दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दो भेद हैं।
दर्शनमोहनीय-तत्त्वार्थश्रद्धान अर्थात् तत्त्वाभिरुचि को दर्शन कहते हैं। यह आत्मा का निजी गुण है। इसके घात करने वाले कर्म का नाम दर्शनमोहनीय है।
चारित्रमोहनीय - जिसके द्वारा आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करती है उसका नाम चारित्र है। यह भी आत्मा का ही गुण है। इसके घातक कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। इसमें भी दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं - १. सम्यक्त्वमोहनीय, २. मिश्रमोहनीय और (३) मिथ्यात्वमोहनीय। इनमें सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक विशुद्ध, मिश्रमोहनीय के अर्द्धविशुद्ध और मिथ्यात्वमोहनीय के अशुद्ध हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २९३] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं