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________________ मूलार्थ - चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार तथा पूर्वोक्त पांच निद्रा आदि इस प्रकार नौ भेद दर्शनावरणीय कर्म के जानने चाहिएं। टीका - दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेद हैं। उनमें से पांच का उल्लेख तो ऊपर आ चुका और शेष चार भेदों का वर्णन इस गाथा में किया गया है। (१) चक्षुदर्शनावरण- आंख के द्वारा पदार्थों के जो सामान्य धर्म का ग्रहण होता है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं, उस सामान्य ग्रहण को रोकने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण कहलाता है। (२) अचक्षुदर्शनावरण- आंख को छोड़कर त्वचा, कान, जिह्वा, नासिका और मन से जो पदार्थों के सामान्य धर्म का बोध होता है उसका नाम अचक्षुदर्शन है, उसके आवरक कर्म को अचक्षुदर्शनावरण कहते हैं। (३) अवधिदर्शनावरण- इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही इस आत्मा को रूपी पदार्थों के सामान्य धर्म का जो बोध होता है उसको अवधिदर्शन कहते हैं, उसको आवृत करने वाले कर्म का नाम अवधिदर्शनावरण है। (४) केवलदर्शनावरण-संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का जो सामान्यरूप से प्रतिभास होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं, उसका आवरक कर्म केवलदर्शनावरण कहलाता है। इस प्रकार से ये नौ भेद दर्शनावरणीय कर्म के कहे जाते हैं अर्थात् पांच निद्रा आदि और चार दर्शनावरण आदि ऐसे नौ भेदं होते हैं। अब तीसरे वेदनीय कर्म के विषय में कहते हैं, यथा वेयणीयं पि य दुविहं, सायमसायं च आहियं । सायस्स उ बहू भैया, एमेव असायस्स वि ॥ ७ ॥ वेदनीयमपि च द्विविधं, सातमसांतं चाख्यातम् । सातस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवाऽसातस्यापि ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः - वेयणीयं पि- वेदनीय कर्म भी, दुविहं - दो प्रकार का, आहियं - कहा गया है, सायं - साता रूप, च- - और, असायं - असाता रूप, सायस्स - साता के, उ-भी, बहू - बहुत से, भेया-भेद हैं, एमेव- इसी प्रकार, असायस्स वि-असाता के भी बहुत भेद हैं। मूलार्थ - वेदनीय कर्म भी दो प्रकार का है - १ साता - वेदनीय और २. असाता - वेदनीय । सातावेदनीय के भी अनेक भेद हैं तथा असाता - वेदनीय भी अनेक प्रकार का कहा गया है। टीका - जिस कर्म के द्वारा सुख-दुःख का अनुभव किया जाता है, अर्थात् जो कर्म आत्मा को सुख-दुःख पहुंचाने में हेतुभूत हो उसको वेदनीय कहते हैं। इसी का दूसरा नाम वेद-कर्म भी है। वेदनीय कर्म के दो भेद हैं - १. सातावेदनीय और २ असातावेदनीय। इनमें सातावेदनीय तो मधुलिप्त असिधारा उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २९२] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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