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________________ ऐसी दशा में भी दाता और याचक की इच्छा पूरी न हो सकने का जो कारण है उसको जैन-परिभाषा में अन्तराय-कर्म कहा गया है। इस कर्म को भंडारी के तुल्य बताया गया है। जैसे राजा ने दरवाजे पर आए हुए किसी याचक को कुछ द्रव्य देने की इच्छा प्रकट की और अपने भंडारी के नाम पत्र लिखकर उस याचक को दे दिया, परन्तु वह भंडारी उसको नहीं देता, यही दशा इस कर्म की है अर्थात् इसके उदय से दानादि सामग्री के उपस्थित होते हुए भी कोई न कोई ऐसा विघ्न उपस्थित हो जाता है कि दान-कार्य में सफलता नहीं मिल पाती। इस प्रकार से इन आठों कर्मों का संक्षिप्त स्वरूप जानना चाहिए। शंका-कर्म के इस प्रस्ताव में प्रथम ज्ञानावरणीय कर्म का उल्लेख क्यों किया गया? समाधान-जीवात्मा का मूल स्वभाव ज्ञान और दर्शन रूप है, इसलिए आत्मा के मूल स्वभाव का प्रतिबन्धक जो कर्म अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म है, उसी का प्रथम उल्लेख करना युक्तियुक्त एवं प्रमाणसंगत है। विशिष्ट बोध का कारण ज्ञान और सामान्य बोध का हेतु दर्शन दोनों के आवरक जो कर्म हैं उन्हीं का प्रथम निर्देश करना समुचित है। इसी प्रकार वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म का क्रम भी समझ लेना चाहिए। शंका-वीतरागावस्था में तो वेदनीय कर्म अपना रस दिए बिना रह सकता है, परन्तु संसारी आत्माओं को उसके द्वारा सुख-दुःख का अनुभव अवश्य करना पड़ता है, इसका क्या कारण है? समाधान-संसारी जीवों में मोहनीय कर्म की सत्ता विद्यमान रहती है, इसलिए उनको वेदनीय कर्मजन्य सुख-दुःख का अनुभव करना पड़ता है और वीतरागावस्था में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है। अब उक्त ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का वर्णन करते हैं, यथा नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं च तइयं, मणनाणं च केवलं ॥ ४ ॥ . ज्ञानावरणं पञ्चविधं, श्रुतमाभिनिबोधिकम् । अवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥४॥ पदार्थान्वयः-नाणावरणं-ज्ञानावरण, पंचविहं-पांच प्रकार का है, सुयं-श्रुत, आभिणिबोहियंआभिनिबोधिक, तइयं-तृतीय, ओहिनाणं-अवधिज्ञान, मणनाणं-मन:पर्यवज्ञान, च-और, केवलं-केवलज्ञान। मूलार्थ-ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार का है। यथा-१. श्रुतज्ञानावरण, २. आभिनिबोधिकज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मनःपर्यवज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण। टीका-इस गाथा में ज्ञानावरणीय कर्म की पांच उत्तर-प्रकृतियों अर्थात् भेदों का वर्णन किया गया है। ज्ञान के पांच भेद हैं, अत: उसके आवरक कर्म भी पांच प्रकार के ही कहे गए हैं। ज्ञान के श्रुतज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान, ये पांच भेद हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २८९] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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