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________________ कर्माणुओं के द्वारा इस जीवात्मा का ज्ञान आवृत हो रहा है, उन कर्माणुओं या कर्म-वर्गणाओं का नाम ज्ञानावरणीय कर्म है। २. दर्शनावरणीय-पदार्थों के सामान्य बोध का नाम दर्शन है और जिस कर्म के द्वारा इस जीवात्मा का सामान्य बोध आवृत हो जाए, उसे दर्शनावरणीय कहते हैं। इस कर्म को शास्त्रों में द्वारपाल की उपमा दी गई है। जैसे द्वारपाल राजा के दर्शन करने में रुकावट डालता है, ठीक उसी प्रकार इस कर्म के द्वारा भी आत्मा के चक्षुदर्शनादि में रुकावट पड़ जाती है। ३. वेदनीय - जिस कर्म के द्वारा सुख-दुःख का अनुभव किया जाए उसका नाम वेदनीय कर्म है। इस कर्म को मधुलिप्त असिधारा की उपमा दी गई है । जैसे मधुलिप्त असिधारा को चाटने से सुख और दुःख दोनों ही होते हैं, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीवात्मा सुख और दुःख दोनों की अनुभूति करता है। ४. मोहनीय - जिस कर्म के प्रभाव से यह जीवात्मा वास्तविकता को जानती हुई भी मूढ़ता को प्राप्त हो, उसको मोहनीय कर्म के नाम से अभिहित किया जाता है। इस कर्म को शास्त्रकारों ने मदिरा के तुल्य बताया है, अर्थात् जिस प्रकार मदिरा के नशे में चूर हुआ पुरुष अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य के भान से च्युत हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के प्रभाव से इस जीवात्मा को भी अपने हेयोपादेय का ज्ञान नहीं रहता । ५. आयु-जो अपने समय पर ही पूरा हो, अर्थात् जिस कर्म प्रभाव से यह जीवात्मा अपनी भवस्थिति अर्थात् आयु को पूर्ण करे उसको आयु-कर्म कहते हैं। इस कर्म को कारागार के सदृश बताया गया है। जैसे कारागार में पड़ा हुआ कैदी अपने नियत समय से पहले निकल नहीं सकता, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीवात्मा अपनी नियत भवस्थिति को पूरा किए बिना संसार से छूट नहीं सकती। ६. नाम - शरीर आदि की रचना का हेतु जो कर्म है उसको नाम-कर्म कहते हैं। इस कर्म को चित्रकार अर्थात् चितेरे की उपमा दी गई है। जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्रों का निर्माण करता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा भी नाम-कर्म के प्रभाव से अनेक प्रकार की आकृतियों में परिवर्तित होता है । ७. गोत्र-जिसके द्वारा यह जीवात्मा ऊंच-नीच कुल में उत्पन्न हो अर्थात् ऊंच-नीच संज्ञा से सम्बोधित किया जाए उसका नाम गोत्र - कर्म है। यह कर्म कुम्हार के सदृश माना गया है। जैसे कुलाल अर्थात् कुम्हार छोटे-बड़े बर्तनों को बनाता है, उसी प्रकार गोत्र-कर्म के प्रभाव से जीवात्मा को ऊंच-नीच पद की प्राप्ति होती है। ८. अन्तराय - जो कर्म दानादि में अन्तराय अर्थात् विघ्न उपस्थित कर दे उसकी अन्तराय संज्ञा है। तात्पर्य यह है कि देने वाले की इच्छा तो देने की हो और लेने वाले की इच्छा लेने की हो, परन्तु उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २८८] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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