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________________ इति ब्रवीमि ____ इति प्रमादस्थानं समाप्तम् ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः-अणाइकालप्पभवस्स-अनादिकाल से उत्पन्न हुए, सव्वस्स-सर्व, दुक्खस्स-दुःख के, पमोक्ख-छूटने का, मग्गो-मार्ग, एसो-यह, वियाहिओ-कथन किया है, जं-जिसको, समुविच्च-अंगीकार करके, सत्ता-जीव, कमेण-क्रम से, अच्चंत-अत्यंत, सुही-सुखी, भवंति-होते हैं, त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ-अनादि काल से उत्पन्न हुए सर्व प्रकार के दुःखों से छूटने का यह मार्ग कथन किया गया है, जिस मार्ग को सम्यक्प से अंगीकार करके जीव अत्यन्त सुखी होते हैं। टीका-प्रस्तुत अध्ययन की समाप्ति करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि अनादिकालीन दुःख-परम्परा से सर्वथा छुटकारा पाने का यही मार्ग है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। जो जीव इस मार्ग का सम्यक्तया अनुसरण करते हैं, वे सदा के लिए सर्व प्रकार के दुःखों से रहित, परम-आनन्दरूप मोक्षपद को प्राप्त हो जाते हैं तथा पांचों इन्द्रियों और छठे मन का निग्रह करना प्रमाद रहित होकर पांचों महाव्रतों का पालन करना तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सम्यक्तया आराधना करना, यह मोक्षमार्ग का संक्षिप्त क्रम है जिसका अनुसरण करना प्रत्येक भव्य जीव के लिए परम आवश्यक है। इसके अतिरिक्त 'त्ति बेमि' की व्याख्या पूर्व की भांति ही जान लेनी चाहिए। द्वात्रिंशत्तममध्ययनं सम्पूर्णम् • उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २८५] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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