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मृषा - (वाक्यस्य) पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददानः, भावेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥ ९६ ॥
पदार्थान्वयः - मोसस्स - मृषावाद के, पच्छा-पीछे, य-और, पुरत्थओ - पहिले, य-तथा, पओगकाले - प्रयोगकाल में, दुही-दुःखी, दुरंते-दुष्ट अन्त:करण वाला, एवं इसी प्रकार, अदत्ताणि - अदत्त वस्तुओं को, समाययंतो- ग्रहण करता हुआ, भावे-भाव में, अतित्तो- अतृप्त, दुहिओ - दुःखित हुआ, अणिस्सो - असहाय ।
मूलार्थ - मिथ्या - भाषण के प्रथम और पीछे तथा मिथ्या भाषण करते समय दुष्ट अन्तःकरण वाला जीव दुःखी होता है, इसी प्रकार अदत्त पदार्थों का ग्रहण करता हुआ भाव में अतृप्त रहकर और भी दुःखी तथा असहाय अर्थात् निराश्रित हो जाता है।
टीका - निरन्तर असत्य बोलने और चोरी करने वाला जीव कभी सुख को प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए संसार में उसका कोई सहायक भी नहीं बनता, यही उक्त गाथा का भावार्थ है ।
अब इसी विषय में और कहते हैं.
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भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ ९७ ॥ भावानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं स्यात्कदापि च । तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वर्तयति यस्य कृतै दुःखम् ॥ ९७ ॥
पदार्थान्वयः- भावाणुरत्तस्स - भावविषयक अनुरक्त, नरस्सनर को एवं - उक्त न्याय से, कयाइ-कदापि, किंचि-किंचिन्मात्र भी, कत्तो - कैसे, सुहं-सुख, हौंज्ज - होवे, तत्थोवभोगे वि-भाव के उपभोग में भी, किलेसदुक्ख - क्लेश और दुःख का, निव्वत्तई - सम्पादन करता है, जस्स कए - जिसके लिए, दुक्खं - कष्ट भोगा है।
मूलार्थ - भावविषयक अनुरक्त पुरुष को उक्त प्रकार से कदापि सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । संकल्प और विकल्पों के पुनः पुनः चिन्तन करने से क्लेश और दुःख ही उत्पन्न होता है, क्योंकि चिरकाल-पर्यन्त भावविषयक चिन्ता करने से कष्ट उत्पन्न हो जाया करता है।
टीका - जो पुरुष मन के संकल्पों में निरन्तर लीन रहता है, वह किसी समय भी सुखी नहीं हो सकता तथा जिन संकल्पों को एकत्रित करने में उसने कष्ट उठाया है, उनके उपभोग में भी वह क्लेश और दुःख का ही अनुभव करता है। इसलिए भावानुरक्त पुरुष को सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। अब द्वेष के विषय में कहते हैं, यथा
एमेव भावम्मि गओ पओसं, दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ९८ ॥
उवे
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७४] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं