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________________ पदार्थान्वयः -भावे-भाव में, अतित्ते - अतृप्त, य-और, परिग्गहम्मि - परिग्रह में, सत्तोवसत्तो - विशेष रूप से आसक्त, तुट्ठि - संतोष को, न उवेइ-1 - प्राप्त नहीं होता, अतुट्ठिदोसेण- अतुष्टिरूपी दोष से, दुही - दु:खी हुआ, परस्स-पर के द्रव्य के लिए, लोभाविले - लोभ से आकुल होकर, अदत्तं - अदत्त को, आययईई-ग्रहण करने लग जाता है। मूलार्थ - भाव के विषय में असन्तोषी और परिग्रह में अधिक आसक्ति रखने वाला जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं होता, किन्तु असन्तोष के दोष से दुःखी होता हुआ वह लोभ के वशीभूत होकर पर के द्रव्य को बिना दिए ग्रहण करने लगता है, अर्थात् चौर्यकर्म में प्रवृत्त हो जाता है। टीका - पूर्व गाथाओं की व्याख्या के समान व्याख्या होने से भावार्थ स्पष्ट है। अब फिर कहते हैं तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ९५ ॥ भावे तृप्तस्य परिग्रहे च । माया - मृषा वर्धते लोभदोषात्, तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ॥ ९५ ॥ तृष्णाभिभूतस्याऽदत्तहारिणः, पदार्थान्वयः - तहाभिभूयस्स - तृष्णा के वशीभूत, अदत्तहारिणो- अदत्त का अपहरण करने वाला, भावे-भाव के विषय में, अतित्तस्स - अतृप्त, य-और, परिग्गहे - परिग्रह में मूर्च्छित, लोभदोसा - लोभ के दोष से, मायामुस - माया और मृषावाद की, वड्ढइ - वृद्धि करता है, तत्थावि - फिर भी, से - वह, दुक्खा - दुःख से, न विमुच्चई - छुटकारा नहीं पा सकता । मूलार्थ - तृष्णा के वशीभूत हुआ, चोरी करने वाला जीव, अपनी महिमा कराने में अतृप्त और परिग्रह में मूच्छित पुरुष लोभ के दोष से माया और मृषावाद की वृद्धि करता है, किन्तु फिर भी वह दुःख से छुटकारा नहीं पा सकता । टीका - जो पुरुष अपनी महिमा आदि कराने में सन्तोष को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् यशकीर्ति के होते हुए भी और अधिक यश-कीर्ति का इच्छुक रहता है तथा अन्य आत्माओं से असूया करता हुआ ममत्व में ही मूर्च्छित हो रहा है एवं लोभ के वशीभूत होकर छल-कपट और असत्य भाषण में प्रवृत्ति कर रहा है और “मैं ही पंडित और सर्व शास्त्रों का जानने वाला हूं" इस प्रकार के अभिमान में डूब रहा है, ऐसे पुरुष को दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता, यही उक्त गाथा का रहस्य है। अब असत्य भाषणादि के परिणाम के विषय में फिर कहते हैं। यथामोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले यं दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ९६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७३ ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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