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मूलार्थ - जिन भावों को मन ग्रहण करता है, उनमें से मनोज्ञ भाव तो राग के हेतु हैं और अमनोज्ञ भाव द्वेष के हेतु कहे गए हैं, परन्तु जो इनमें सम भाव रखता है वह वीतराग है।
टीका - भाव का अर्थ है विचार, विचारों का ग्राहक चित्त है, अर्थात् मन के द्वारा ही भावों को ग्रहण किया जाता है। वे भाव यदि मनोज्ञ हों तो राग का कारण बन जाते हैं और यदि अमनोज्ञ हों तो द्वेष को उत्पन्न करने वाले हो जाते हैं। जो पुरुष इनमें समान भाव रखता है, अर्थात् इनके निमित्त से आत्मा में राग-द्वेष को उत्पन्न नहीं होने देता अथवा जिसमें राग-द्वेष की उत्पत्ति नहीं होती वह वीतराग है, ऐसा तीर्थंकरादि महापुरुषों का कथन है ।
अब मन और भाव के पारस्परिक सम्बन्ध आदि का वर्णन करते हुए शास्त्रकार फिर कहते हैं
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भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नाहु ॥ ८८ ॥
भावस्य मनो ग्राहकं वदन्ति, मनसो भावं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥ ८८ ॥
पदार्थान्वयः:- भावस्स- भाव का, मणं-मन को, गहणं - ग्राहक, वयंति - कहते हैं, मणसो - मन का, भाव-भाव को, गहणं-ग्राह्य, वयंति कहते हैं, रागस्स हेडं- - राग का हेतु, समणुन्नं- मनोज्ञ भाव, आहु-कहा है, दोसस्स हेउं द्वेष का हेतु, अमणुन्नं- अमनोज्ञ भाव, आहु - कहा गया है। मूलार्थ - -मन भाव का ग्राहक है और भाव मन का ग्राह्य है, मनोज्ञ भाव राग का हेतु है और अमनोज्ञ भाव को द्वेष का हेतु कहा गया है।
टीका-मन और भाव का ग्राह्य-ग्राहकभाव सम्बन्ध है । मन के द्वारा भाव गृहीत होते हैं और मन उनको ग्रहण करता है। इस प्रकार इनकी परस्पर ग्राह्य-ग्राहकता है। इनमें शुभ भाव को तो राग की उत्पत्ति का हेतु माना गया है और अशुभ भाव से द्वेष की उत्पत्ति होती है।
अब भावविषयक बढ़े हुए राग के विषय में कहते हैं, यथा
भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावहिए व नागे. ॥ ८९ ॥
- प्राप्त
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भावेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्राम्, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरः कामगुणेषु गृद्धः करेणुमार्गापहृत इव नागः ॥ ८९ ॥ पदार्थान्वयः- भावेसु - भावविषयक, जो-जो तिव्वं - उत्कट भाव से, गिद्धिं - मूर्च्छा को, उवे - होता है, से - वह, अकालियं - अकाल में, विणासं - विनाश को, पावइ - प्राप्त होता है, रागाउरे - रागातुर, कामगुणेसु गिद्धे-कामगुणों में मूच्छित, करेणु - हस्तिनी के द्वारा, मग्गावहिए-मार्गापहृत, व-जैसे, नागे - हस्ती विनाश को प्राप्त होता है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२६९] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं